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छठा अध्ययन : आर्द्र कीय
धम्मं कहंतस्स उ णत्थि दोसो, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स । भासाय दोसे य विवज्जगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्स ॥ ५ ॥ महव्वए पंच अणुव्वए य, तहेव पंचासवसंवरे य । विरति इह सामणियंमि पन्ने, लवावसंक्की समणेत्ति बेमि ॥ ६ ॥ संस्कृत छाया
पुराकृतमा ! इदं श्रुणु, एकान्तचारी श्रमणः पुराऽऽसीत् । स भिक्षूनुपनीयाऽनेकान् आख्यातीदानीं पृथक् विस्तरेण || १ || सा जीविका प्रस्थापिताऽस्थिरेण सभागतो गणशो भिक्षुमध्ये । आचक्षमाणो बहुजन्यमर्थं, न सन्दधात्यपरेण पूर्वम् ॥ २ ॥ एकान्तमेवं अथवाऽपीदानीं, द्वावन्योऽन्यं न समितो यस्मात् । पूर्वं चेदानीं चानागतं च, एकान्तमेवं प्रतिसंदधाति ॥ ३ ॥ समेत्य लोकं सस्थावराणां क्षेमकरः श्रमणो माहनो वा । आचक्षमाणोऽपि सहस्रमध्ये एकान्तकं साधयति तथार्च: ।। ४ ।। धर्मं कथयतस्तु नास्ति दोषः क्षान्तस्य दान्तस्य जितेन्द्रियस्य ! भाषायाः दोषस्य विवर्जकस्य, गुणश्च भाषायाः निषेवकस्य ।। ५ ।। महाव्रतान् पंचाणुव्रतांश्च तथैव पंचाश्रवसंवरांश्च । विरतिमिह श्रामण्ये पूर्णे' लवावस्वष्की श्रमण इति ब्रवीमि ॥ ६ ॥
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अन्वयार्थ
(अद्द ! पुराकडं इमं सुणेह मे ) गोशालक आर्द्रक मुनि से कहता है - हे आर्द्रक ! महावीर स्वामी ने पहले जो आचरण किया था, उसे मुझसे सुन लो । ( एतयारी समणे पुराऽऽसी) महावीर स्वामी पहले अकेले ही विचरण किया करते थे तथा तपस्वी थे । ( इण्हि से अणेगे भिक्खुणी उवणेत्ता पुढो वित्थरेण आइक्खइ ) अब वे (महावीर स्वामी) अनेक भिक्षुओं को इकट्ठे करके या अपने साथ रखकर पृथक्-पृथक् विस्तारपूर्वक धर्मोपदेश देते ( कहते ) हैं || १ ||
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( अस्थिरेण सा आजीविया पट्ठविया) उस चंचल चित्त वाले महावीर स्वामी 'यह तो आजीविका बना ली है ( सभागओ गणओ भिक्खुमज्झे) वह सभा में जाकर नेक भिक्षुओं के गण के बीच (आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं ) बहुत से लोगों के हित के लिए धर्मोपदेश देते हैं, (अवरेण पुव्वं न संधयाई) उनका यह वर्तमान व्यवहार उनके पहले व्यवहार से मेल नहीं खाता, यह पूर्वापरविरुद्ध आचरण है ||२॥
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