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________________ ३३२ सूत्रकृतांग सूत्र धुंआ पूर्वप्रयोग से गति करते हैं, इसी तरह सिद्ध (मुक्त) पुरुष भी पूर्वप्रयोगवशात् ऊर्ध्वगति करते हैं । मगर उस समय में वे कोई व्यापार नहीं करते । जैसे कर्मों के अधीन जीव अपने कर्मोदयवश अनेक स्थानों का अनुभव करते हैं । वैसे ही कर्मरहित जीव का लोक के अग्रभाग में ही अपना स्थान होता है । अतः सिद्धि जीव का अपना स्थान नहीं है, ऐसी विपरीत मान्यता छोड़कर सिद्धि ही जीव का अपना अन्तिम स्थान (लक्ष्य) है, ऐसा मानना चाहिए । यही २६वीं गाथा का आशय है । साधु असाधु, कल्याणवान् या पापी का अस्तित्व २७वीं गाथा में शास्त्रकार ने साधु और असाधु के अस्तित्व को मानने पर बल दिया है और कहा है कि इससे इन्कार करना न्यायोचित नहीं है । साधु का अर्थ है, जो स्वपरहित को सिद्ध करता है अथवा प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानों से विरत होकर सम्यक्दर्शन- ज्ञान चारित्र तपरूप मोक्षमार्ग की या पंच महाव्रतों की साधना करता है, वह साधु है । जिसमें इस प्रकार की साधुता न पाई जाए, वह असाधु है । जगत् में इस प्रकार का साधु या असाधु नहीं है ऐसा विचार नहीं करना चाहिए, किन्तु साधु भी है असाधु भी है, ऐसा विचार करना चाहिए । किन्हीं लोगों का सिद्धान्त है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप रत्नत्रय का पूर्णरूप से पालन करना सम्भव नहीं है । और इनका पूर्णरूप से पालन या आराधन किये बिना कोई साधु नहीं होता । इसलिए संसार में कोई साधु नहीं है । जब साधु ही नहीं है तो उसका प्रतिपक्षी असाधु भी नहीं हो सकता क्योंकि साधु और असाधु परस्पर सापेक्ष हैं । इसलिए साधु और असाधु नहीं है. ऐसा कतिपय लोग कहते हैं । किन्तु उनकी यह मान्यता उचित नहीं है । विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिए । जो उत्तम पुरुष सदा यतनावान ( उपयोगयुक्त), रागद्व ेषरहित, सुसंयमी एवं शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध निर्दोष आहार लेता है, वह सम्यग्दृष्टि चारित्रवान् व्यक्ति साधु अवश्य है । उसके द्वारा भूल से अनजान में कदाचित् अनेषणीय अशुद्ध आहार ले भी लिया जाय तो भी वह सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का अपूर्ण आराधक नहीं, अपितु पूर्ण आराधक है, क्योंकि उसकी उपयोग बुद्धि एवं भावना शुद्ध है । अनजान में प्रमादवश होकर अशुद्ध आहार को अपनी शुद्ध बुद्धि से शुद्ध समझकर उपयोगपूर्वक खाता है । इसलिए अपनी दृष्टि में वह पूर्णरूप से रत्नत्रय का आराधक होने से साधु ही है । तथा पूर्व गाथा में समस्त कर्मक्षयरूप जिस मुक्ति की सिद्धि की गई है, वह भी साधु को होती है । इससे भी साधु के अस्तित्व की सिद्धि होती है । इस प्रकार साधु के अस्तित्व की सिद्धि हो जाने पर उसके प्रतिपक्षी असाधु के अस्तित्व की भी सिद्धि हो जाती है । अतएव विवेकी जनों को ऐसा नहीं मानना चाहिए कि साधु और असाधु नहीं हैं । यही २७वीं गाथा का आशय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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