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________________ पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत कई लोग कहते हैं कि साधु को तो समतावान् होना चाहिए, जिसमें समता न हो, वह साधु नहीं हो सकता। किन्तु जिसे आप साधु कहते हैं, वह तो 'यह भक्ष्य है, यह अभक्ष्य है, यह प्रासुक है, यह अप्रासुक है, यह एषणीय है, यह अनैषणीय है,' इस प्रकार एक पर राग और दूसरे पर द्वष रखता है और इस प्रकार राग-द्वेष रखना, विषमभाव है ऐसे विषमभाव रखने वाले पुरुषों में सामायिक (समता) का अभाव होने से वे साधु नहीं हो सकते । यह कथन भी अविचारपूर्ण है । क्योंकि भभयाभक्ष्य, कल्प्यअकल्प्य का विचार करना मोक्ष का प्रधान अंग है. वह राग-द्वेष नहीं है। राग से तो भक्ष्याभक्ष्य आदि का विचार नष्ट हो जाता है । वस्तु चाहे कैसी भी स्वादिष्ट हो, रागी-पुरुष की उसे ग्रहण करने की बुद्धि हो जाती है। इसलिए भक्ष्याभक्ष्य का विवेक राग के अभाव का कार्य है, राग का कार्य नहीं । वास्तव में कोई अपने पर उपकार करे या अपकार करे, उस पर समभाव रखना सामायिक है, परन्तु भक्ष्याभक्ष्य-विवेक न रखना सामायिक नहीं। अतः भक्ष्याभक्ष्य-विवेक को रागद्वष मानना भूल है । पूर्वोक्त निरूपण से यह सिद्ध हो जाता है कि साधु समतावान् (सामायिक युक्त) ही होता है। २८वीं गाथा में शास्त्रकार ने कल्याण या पाप अथवा कल्याणवान् या पापवान् कोई वस्तु नहीं है, ऐसा कहने वालों की मान्यता को अयथार्थ बताया है। किन्तु कल्याण और पाप दोनों का अस्तित्व है, यही मान्यता ठीक है। बौद्धों का कथन है कि समस्त पदार्थ अशुचि और अनात्मक (आत्मा से रहित) हैं, इसलिए जगत् में कल्याण नामक कोई पदार्थ नहीं है । कल्याण नामक पदार्थ न होने से कोई व्यक्ति कल्याणवान् भी नहीं है । आत्माद्वैतवादी के मत से आत्मा से भिन्न कोई पदार्थ है ही नहीं, सभी पदार्थ आत्म(पुरुष)स्वरूप हैं, इसलिए कल्याण और पाप कोई वस्तु नहीं है । परन्तु विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति को कल्याण और हिंसा आदि को पाप कहते हैं। अगर अद्वत को मानकर इन दोनों का निषेध किया जाए तो अबाधित (प्रत्यक्ष) अनुभव सिद्ध इस जगत् की विचित्रता संगत नहीं हो सकती। इसलिए आत्मावत के अनुसार कल्याण और पाप का अभाव मानना मिथ्या है । बौद्धमतानुसार कल्याण एवं पाप का अभाव एवं समस्त पदार्थों को अशुचि एवं अनात्मक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थ अशुचि होने पर बौद्धों के उपास्यदेव भी अशुचि सिद्ध होंगे, परन्तु वे ऐसा नहीं मान सकते । इसलिए सब पदार्थ अशुचि नहीं है, और न ही निरात्मक हैं, क्योंकि सभी पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से असत् हैं, यही सर्वानुभवसिद्ध निर्दोष सिद्धान्त है, निरात्मवाद नहीं। चार प्रकार के घनघाती कर्मों का क्षय किये हुए केवली में साता और असाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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