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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
३३१ प्रकार जीवों से पूर्ण इस लोक में भिक्षु (साधु) अहिंसक कैसे हो सकता है ?' अत: हिंसा से सर्वथा निवृत्त न होने से किसी की भी सिद्धि या मुक्ति होना सम्भव नहीं है । परन्तु यह कथन भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि जो साधु जीवहिंसा से बचने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है, तथा समस्त आश्रवद्वारों को रोककर पाँच समिति एवं तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ, ४२ दोषों को वर्जित करके निरवद्य निर्दोष आहार ग्रहण करता है, एवं निरन्तर ईर्यापथ का शोधन करता हुआ अपनी प्रवृत्ति करता है, उसका भाव शुद्ध है । ऐसे पुरुष के द्वारा कदाचित् किसी प्राणी की द्रव्यतः विराधना हो भी जाय तो भावशुद्धि के कारण कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि वह साधु सर्वथा दोषरहित है। अतः ऐसे पुरुषों को समस्त कर्मों का क्षय होकर सिद्धि या मुक्ति की प्राप्ति होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । इसलिए सिद्धि की प्राप्ति को असम्भव मानना मिथ्या है । पूर्वोक्त अनुमानों से, आगमप्रमाण से और महापुरुषों द्वारा सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करने से सिद्धि की सिद्धि होती है।
असिद्धि का स्वरूप तो स्पष्टतः सिद्ध ही है। उसका हम सबने अनुभव किया है और कर रहे हैं। अतः सिद्धि और असिद्धि नहीं है, यह विचारणा उचित नहीं है । दोनों का अस्तित्व है, यह ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।
इसी प्रकार सिद्धि जीव का निजी स्थान नहीं है, ऐसी मान्यता रखना भी ठीक नहीं है । बल्कि सिद्धि ही जीव का अपना स्थान है, समस्त कर्मों के क्षय हो जाने पर जीव जिस स्थान को प्राप्त करता है, वही उसका निज स्थान है, ऐसी मान्यता रखना ही उचित है। जैसे बद्ध जीव का कोई स्थान होता है, उसी प्रकार मुक्त जीव का भी कोई स्थान अवश्य होना चहिए। कई लोग कहते हैं-~-मुक्त पुरुष तो आकाश की तरह सर्वव्यापक होता है, उसका कोई एक निजी स्थान नहीं होता, यह कथन यथार्थ नहीं है। आकाश तो लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है, मगर मुक्त पुरुष को ऐसा नहीं माना जा सकता; क्योंकि अलोक में तो आकाश के सिवाय अन्य किसी किसी पदार्थ का रहना असम्भव है। एवं मुक्तात्मा लोकमात्र व्यापक हो, यह भी नहीं हो सकता क्योंकि मुक्ति होने से पूर्व उसमें समस्त लोकव्यापकता नहीं पाई जाती, अपितु नियत देशकाल आदि के साथ ही उसका सम्पर्क पाया जाता है । तथा वह नियत सुख-दुःख का ही अनुभव करता देखा जाता हैं । अतः मुक्ति होने के पश्चात् भी उसकी व्यापकता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि मुक्ति होने के पश्चात् वह सर्वव्यापक हो जाता है, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । अतः उस मुक्तात्मा का जो निजस्थान है, वह लोकाग्र (सिद्धिस्थान-सिद्धिशिला) है । जो योजन के एक कोस के छठे हिस्से के बराबर है तथा चतुर्दश-रज्ज्वात्मक लोक के अग्रभाग में स्थित है । कहा भी है
कर्मविप्रमुक्तस्य ऊर्ध्वगतिः अर्थात्-कर्मबन्धन से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होती है । वह ऊर्ध्वगति लोक का अग्रभाग ही है । जैसे तुम्बा, एरण्ड का फल और धनुष से छूटा हुआ बाण और
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