________________
सूत्रकृतांग सूत्र
सिद्धि का अर्थ है--समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्तज्ञान-दर्शन और सुखरूप आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जाना । इसे मोक्ष या मुक्ति भी कहते हैं। सिद्धि से जो विपरीत हो, वह असिद्धि है । अर्थात्-शुद्धस्वरूप की उपलब्धि न होना और संसार में भ्रमण करना । असिद्धि संसारस्वरूप है। सिद्धि और असिद्धि दोनों ही नहीं हैं, ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिए, अपितु यही विचार करना चाहिए कि सिद्धि भी है और असिद्धि भी है । असिद्धि अर्थात् संसार के स्वरूप का वर्णन २३वीं गाथा में किया गया है । जब असिद्धि सत्य है, तो उससे विपरीत समस्त कर्मक्षयरूप सिद्धि भी सत्य है। क्योंकि सभी पदार्थों का प्रतिपक्ष अवश्य होता है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग की आराधना करने से समस्त कर्मों का क्षय होकर जीव को सिद्धि की प्राप्ति होती है । किसी पुरुष का किसी समय संचित किया हुआ कर्मसमुदाय क्षीण हो जाता है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, क्योंकि वह समुदाय है । जो-जो समुदाय होता है उसका कभी न कभी क्षय अवश्य होता है; जैसे घटसमुदाय का। तथा पीड़ा और उपशम के द्वारा कर्मों का अंशतः (देश से) क्षय होना प्रत्यक्ष देखा जाता है, इससे सिद्ध होता है कि समस्त कर्मों का क्षय भी किसी जीव का अवश्य होता है । इसलिए विद्वानों ने कहा है
दोषावरणयोर्हानिनिःशेषातिशायिनी ।
क्वचित् यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तमलक्षयः । __ जैसे मल को नष्ट करने के कारण मिलने पर बाह्य और आभ्यन्तर मल का सर्वनाश हो जाता है, इसी तरह पुरुष (आत्मा) के रागादि दोषों और आवरणों का भी अत्यन्त भय हो जाता है । ऐसा पुरुष समस्त कर्मों के क्षय होने से सिद्धि को प्राप्त करता है और उसी को सर्वविषयक ज्ञान होकर सर्वज्ञता प्राप्त होती है । वस्तुतः देखा जाय तो जीव में स्वाभाविक ही सर्वज्ञता रही हुई है। वह आवरण से ढकी हुई है । उस आवरण के सर्वथा क्षय हो जाने पर सर्वज्ञता को कौन रोक सकता है ? वह अपने आप ही हो जाती है । वह सर्वज्ञ पुरुष सिद्धि या मुक्ति को अवश्य ही प्राप्त करता है । इसलिए सिद्धि या मुक्ति अवश्य है ही, यही विवेकी पुरुष को मानना चाहिए।
कुछ लोगों का कहना है कि-यह संसार अंजन (काजल) से भरी पेटी के समान, जीवों से संकुल (ठसाठस भरा हुआ) है । इसलिए किसी भी जीव का हिंसा से बचना इसमें सम्भव नहीं है । कहा भी है
जले जीवाः स्थले जीवाः आकाशे जीवमालिनि ।
जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्ष रहिंसकः ? अर्थात्-'जल में जीव हैं, स्थल में जीव हैं, आकाश में भी जीव हैं, इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org