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________________ पंचम अध्ययन : अनगारश्रु त-आचारश्रुत पक्षमयी दृष्टि न रखे, ऐसी एकान्तबुद्धि या एकपक्षीय अभिप्राय न रखे; अर्थात् कदाग्रह धारण करना उचित नहीं है । ऐसा क्यों उचित या न्यायसंगत नहीं है ? इसके समाधानार्थ तीसरी गाथा में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं- "ववहारो ण विज्जई, अणायारं तु जाणए ।" इसका आशय यह है कि जगत् में जितने भी पदार्थ हैं, वे कथंचित् नित्य हैं, और कथंचित् अनित्य हैं । कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो एकान्तनित्य या एकान्तअनित्य हो, क्योंकि प्रत्येक वस्तु द्रव्यरूप से नित्य है, परन्तु पर्यायरूप से अनित्य है । ऐसी दशा में कोई भी पदार्थ एकान्तनित्य या एकान्तअनित्य शास्त्रीय या लौकिक दोनों व्यवहारों से विरुद्ध है, वह सिद्ध नहीं होता। इसलिए इस प्रकार किसी भी पदार्थ को एकान्तनित्य या एकान्तअनित्य मानना अनाचार सेवन करना है | अर्थात् पाँच प्रकार के आचारों में दूसरा आचार दर्शनाचार है, उसका विपरीतरूप से आचरण मिथ्यादर्शनाचाररूप है । ३०३ प्रश्न होता है कि एकान्त मान्यता से अनाचार - सेवन कैसे हो जाता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि आर्हत प्रवचन ( आगम) के सिद्धान्तानुसार सभी पदार्थ सामान्य विशेषरूप उभयात्मक हैं, इसलिए वे सामान्य अंश को लेकर नित्य हैं और विशेष अंश को लेकर अनित्य हैं । अतः सभी पदार्थ नित्य - अनित्यात्मक हैं, ऐसा जानना सम्यग्दर्शनरूप आचार का सेवन है । ऐसी मान्यता युक्तिसंगत होने पर भी अन्यदर्शन वाले इसे स्वीकार नहीं करते, वे किसी एक पक्ष का एकान्तरूप से आश्रयी लेकर किसी पदार्थ को एकान्तनित्य तथा किसी को एकान्तअनित्य कह देते हैं । सांख्यमतवादी कहते हैं- पदार्थ की न तो उत्पत्ति होती है और न ही विनाश होता है, प्रत्येक पदार्थ स्थिर एक स्वभावरूप कूटस्थनित्य है । यानी सभी पदार्थ एकान्तनित्य हैं; जबकि बौद्धमतवादी समस्त पदार्थों को निरन्वय क्षणभंगुर मानकर एकान्तअनित्य कहते हैं । वास्तव में दोनों मतवादी मिथ्यावादी हैं, क्योंकि दोनों ही एकान्तदृष्टिपरक हैं । जगत् में कोई भी पदार्थ एकान्तनित्य नहीं है । पदार्थ की की उत्पत्ति और विनाश प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। उसकी नवीनता और प्राचीनता ( पुरातनता ) भी प्रत्यक्ष देखी जाती है । जगत् का व्यवहार भी इसी तरह का है । लोकव्यवहार में कहा जाता है - यह वस्तु नई है, यह पुरानी है एवं यह वस्तु नष्ट हो गई है । अत: लोकव्यवहार में एकान्तनित्यता का व्यवहार भी नहीं देखा जाता । इसके अतिरिक्त यदि आत्मा को उत्पत्तिविनाशरहित सदा एक-सा एकरूप - एकरस रहने वाला कूटस्थ नित्य माना जाए तो इसका बन्ध और मोक्ष नहीं हो सकता । फिर साधुदीक्षा ग्रहण करने और शास्त्रोक्त आचार-विचार का पालन करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । अतः पारलौकिक दृष्टि से भी एकान्तनित्यतावाद युक्तिसंगत एवं शास्त्रसम्मत नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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