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मूल पाठ अणादीयं परित्राय, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसास वा, इइ दिट्ठि न धारए ॥२॥ एहि दोहि ठाणे, ववहारो ण विज्जई । एएहि दोहि ठाणेह अणायारं तु जाणए ॥३॥ संस्कृत छाया
अनादिकं परिज्ञाय, अनवदग्रमिति वा पुनः । शाश्वतमशाश्वतं वा इति दृष्टि न धारयेत् ॥ २ ॥ एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारं तु जानीयात् ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ
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सूत्रकृतांग सूत्र
( अणादीयं ) विवेकी पुरुष इस जगत को अनादि-आदिरहित, ( वा अणवदगेति पुगो) अथवा जिसका कोई अवदग्र = अन्न न हो, अर्थात् अनन्त ( परिन्नाय ) यह चतुर्दश रज्जूरूप लोक अनादि-अनन्त धर्माधर्मादिरूप है, यह जानकर ( सासयम - Free वा ) यह लोक एकान्तनित्य है या एकान्तअनित्य है, (इइ दिट्ठि न धारए) इस प्रकार की दृष्टि ( एकान्त आग्रहमयी बुद्धि) न रखे ॥२॥
(एएहि दोहि ठाणे ) एकान्तनित्य और एकान्तअनित्य इन दोनों एकान्त पक्षों से (ववहारो ण विज्जई) शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार चल नहीं सकता है, (एएहि दोहि ठाणेह तु अणायारं जाणए) इन दोनों एकान्त पक्षों के आश्रय को अनाचार सेवन जानना चाहिए || ३ ||
व्याख्या
एकान्तनित्यानित्यात्मक पक्ष अव्यवहार्य एवं अनावरणीय
इन दोनों गाथाओं में शास्त्रकार ने मिथ्यादर्शनरूप अनाचार ( अनाचरणीय) का निरूपण किया है तथा एकान्तनित्य अथवा एकान्तअनित्य पक्ष का स्वीकार करना अव्यवहार्य एवं अनाचरणीय बताया है ।
अणादीयं परिन्नाय अणवदग्गेति वा पुणो-- अनादिक उसे कहते हैं, जिसकी आदि - प्रथम उत्पत्ति न हो । अनवदग्र उसे कहते हैं- जिसका अवदग्र यानी अन्त न हो, जो अनन्त हो ।
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इइ दिठिन धारए - यह चतुर्दशरज्ज्वात्मक या धर्माधर्मादिमय लोक एकान्त शाश्वत - नित्य है, या एकान्त अशाश्वत - अनित्य है, इस प्रकार की एकान्त एक
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