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________________ ३०२ मूल पाठ अणादीयं परित्राय, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसास वा, इइ दिट्ठि न धारए ॥२॥ एहि दोहि ठाणे, ववहारो ण विज्जई । एएहि दोहि ठाणेह अणायारं तु जाणए ॥३॥ संस्कृत छाया अनादिकं परिज्ञाय, अनवदग्रमिति वा पुनः । शाश्वतमशाश्वतं वा इति दृष्टि न धारयेत् ॥ २ ॥ एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारं तु जानीयात् ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ , सूत्रकृतांग सूत्र ( अणादीयं ) विवेकी पुरुष इस जगत को अनादि-आदिरहित, ( वा अणवदगेति पुगो) अथवा जिसका कोई अवदग्र = अन्न न हो, अर्थात् अनन्त ( परिन्नाय ) यह चतुर्दश रज्जूरूप लोक अनादि-अनन्त धर्माधर्मादिरूप है, यह जानकर ( सासयम - Free वा ) यह लोक एकान्तनित्य है या एकान्तअनित्य है, (इइ दिट्ठि न धारए) इस प्रकार की दृष्टि ( एकान्त आग्रहमयी बुद्धि) न रखे ॥२॥ (एएहि दोहि ठाणे ) एकान्तनित्य और एकान्तअनित्य इन दोनों एकान्त पक्षों से (ववहारो ण विज्जई) शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार चल नहीं सकता है, (एएहि दोहि ठाणेह तु अणायारं जाणए) इन दोनों एकान्त पक्षों के आश्रय को अनाचार सेवन जानना चाहिए || ३ || व्याख्या एकान्तनित्यानित्यात्मक पक्ष अव्यवहार्य एवं अनावरणीय इन दोनों गाथाओं में शास्त्रकार ने मिथ्यादर्शनरूप अनाचार ( अनाचरणीय) का निरूपण किया है तथा एकान्तनित्य अथवा एकान्तअनित्य पक्ष का स्वीकार करना अव्यवहार्य एवं अनाचरणीय बताया है । अणादीयं परिन्नाय अणवदग्गेति वा पुणो-- अनादिक उसे कहते हैं, जिसकी आदि - प्रथम उत्पत्ति न हो । अनवदग्र उसे कहते हैं- जिसका अवदग्र यानी अन्त न हो, जो अनन्त हो । ― इइ दिठिन धारए - यह चतुर्दशरज्ज्वात्मक या धर्माधर्मादिमय लोक एकान्त शाश्वत - नित्य है, या एकान्त अशाश्वत - अनित्य है, इस प्रकार की एकान्त एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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