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पंचम अध्ययन : अनगारश्रु त-आचारश्रुत
अर्थात् सत्य ब्रह्म है, तप ब्रह्म है, इन्द्रियनिग्रह ब्रह्म है, सर्व प्राणियों के प्रति दया ब्रह्म है । यह ब्रह्म का लक्षण है ।
इस प्रकार ब्रह्म में विचरण करना ब्रह्मचर्य है । अथवा इन ब्रह्मविषयक बातों का वर्णन करने वाला वीतराग परमात्मा (ब्रह्म) द्वारा प्ररूपित जो आगमवचन या प्रवचन है, उसे भी ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् सत्य, तप, जीवदया और सर्वेन्द्रियनिरोध का वर्णन करने वाला जो जैनेन्द्र प्रवचन है, वह भी ब्रह्मचर्य है । इस जैनेन्द्र प्रवचनरूप ब्रह्मचर्य का स्वीकार करके विवेकी पुरुष कदापि सावद्य अनुष्ठान (अनाचार सेवन ) न करे, यह शास्त्रकार का तात्पर्य है ।
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वह जैनेन्द्र प्रवचनरूप ब्रह्मचर्य सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग का प्रतिबोधक है। इसमें बताये हुए तत्त्वों को जानना, उन पर श्रद्धा करना ( मानना ) तथा तदनुसार आचरण करना - सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र है, इसके विपरीत अन्य पूर्वापरविरुद्ध दर्शनों, अहिंसादि से विरुद्ध बातों (पदार्थों) को जानना, मानना ( उन पर श्रद्धा करना) तथा उन कुमन्तव्यों के अनुसार आचरण करना क्रमशः मिथ्यादर्शन - मिथ्याज्ञान- मिथ्याचारित है । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्त्व हैं; धर्म, अधर्म, आकाश, काल जीव और पुद्गल, ये छह द्रव्य हैं । द्रव्य नित्यानित्य उभयस्वभावात्मक है अथवा सामान्य- विशेषात्मक है । अनाद्यनन्त चतुर्दशरज्ज्वात्मक जो लोक है, वह तत्त्व है । इस तत्त्व तथा पूर्वोक्त तत्त्वों व द्रव्यों पर यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल यह पाँच प्रकार का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है; और सामायिक, छेदोपस्थानीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात, यह पाँच प्रकार चारित्र - सम्यक्, चारित्र है; अथवा मूलगुण और उत्तरगुण के भेद से चारित्र अनेक प्रकार का है ।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को बताने वाला जैनेन्द्र आगम (प्रवचन) ही वस्तुत: ब्रह्मचर्य है । इसे प्राप्त करके साधक को इस धर्म में कदापि मिथ्यादर्शन आदि त्रय अनाचरणीय बातों का सेवन नहीं करना चाहिए, यह शास्त्रकार का आशय है ।
सारांश
दुःखरूप संसार का मार्ग असत्य है और मोक्ष का मार्ग सत्य है, इस प्रकार सत्-असत् वस्तु का ज्ञाता बुद्धिमान साधक इस अध्ययन में आगे कहे जाने वाले वचनों को तथा सत्य, तप, जीवदया एवं इन्द्रियनिग्रहरूप ब्रह्मचर्य को ग्रहण करके जिनेन्द्रप्रतिपादित धर्म में स्थित होकर कदापि अनाचार का अर्थात् कुत्सित या निषिद्ध आचार का सेवन न करे ।
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