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________________ ३०० सूत्रकृतांग सूत्र बरतने एवं तदनुरूप आचरण करने के लिए कहा गया है । अन्तिम कुछ गाथाओं में अनगार को अमुक प्रकार की भाषा न बोलने का उपदेश दिया गया है । ___ अतः आचारश्रुत के सार्थक नाम के अनुसार इस अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है मूल पाठ आदाय बंभचेरं च, आसुपन्ने इमं वइं। अस्सि धम्मे अणायारं, नायरेज्ज कयाइ वि ॥१॥ संस्कृत छाया आदाय ब्रह्मचर्यं च, आशुप्रज्ञ इदं वचः । अस्मिन् धर्मे अनाचारं, नाचरेच्च कदापि हि ॥ १ ॥ अन्वयार्थ (आसुपन्ने) आशुप्रज्ञ-सत्-असत् का ज्ञाता साधक (इमं वई बभचेरं च आदाय) इस अध्ययन के वाक्य तथा ब्रह्मचर्य (आत्मा से सम्बन्धित चर्या ) को धारण करके (अस्ति धम्मे अणायारं कयाइ वि नायरेज्ज) इस वीतरागप्ररूपित धर्म में अनाचार का कदापि सेवन न करें । नयाख्या आशुप्रज्ञ साधक के लिए अनाचार-सेवन का निषेध इस शास्त्र के प्रारम्भ में तीर्थंकरदेव ने ज्ञान प्राप्त करने पर जोर दिया है । तथा द्वितीय श्र तस्कन्ध के चौथे अध्ययन के अन्त में साधक को पण्डित बनना आवश्यक बताया है। अतः इस अध्ययन की प्रथम गाथा द्वारा शास्त्रकार कहते हैं कि साधक इस अध्ययन में उक्त वचनों तथा ब्रह्मचर्य को धारण करने से ही आशुप्रज्ञप्रत्युत्पन्नमति हो सकता है, यानी वह शीघ्र ही हिताहित का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, पण्डित हो सकता है, अन्यथा नहीं । प्रश्न होता है, केवल ब्रह्मचर्य के धारण करने यानी जननेन्द्रियसंयम कर लेने से ही कोई कैसे ज्ञान-प्राप्त हो सकता है, या पण्डित बन सकता है ? इसके समाधानार्थ वृत्तिकार कहते हैं- ब्रह्मचर्य का अर्थ यहाँ आत्मा से सम्बन्धित चर्या में विचरण करना है, अथवा वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित प्रवचनों में रमण करना भी ब्रह्मचर्य है । जैसा कि एक आचार्य ने ब्रह्म का लक्षण किया है सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म, ब्रह्म इन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद्ब्रह्मलक्षणम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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