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पंचम अध्ययन : अनगारथ त-आचारश्रु त
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय चतुर्थ अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। चौथे अध्ययन में संसार-सागर को पार करने के इच्छुक साधक के लिए प्रत्याख्यान करना अनिवार्य बताया है। परन्तु जब तक साधक अनाचार का पूर्णतया त्याग करके सम्यक आचार में स्थित नहीं होता, तब तक वह पूर्णरूप से प्रत्याख्यान का पालन नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो, अनाचार का त्याग करने से ही प्रत्याख्यान निर्दोष एवं शुद्ध हो सकता है। इसलिए अनाचार के त्याग और आचार के पालन का निरूपण करने के लिए यह पंचम आचारश्रुत नामक अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है । अनाचार का वर्णन करने के कारण इस अध्ययन को कोई-कोई अनाचारश्रुत भी कहते हैं । इस अध्ययन को जानकर साधक आचार और अनाचार का ज्ञाता होकर आचार के पालन और अनाचार के त्याग में निपुण हो सकता है । जो साधक आचार के पालन एवं अनाचार-त्याग में दक्ष होता है, वही कुमार्ग को छोड़कर सुमार्ग पर चलने वाले पथिक की तरह समस्त दोषों से रहित होकर शीघ्र ही अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
जिस आचार का इस अध्ययन में वर्णन है, वह साधुओं का ही आचार है, इसलिए इस अध्ययन का नाम अनगारश्रुत भी है। नियुक्तिकार के कथनानुसार इस अध्ययन का सार 'अनाचारों का त्याग करना' है । जब तक साधक को आचार का पूरा ज्ञान नहीं होता, तब तक वह उसका सम्यक्तया पालन नहीं कर सकता । अबहुश्रुत साधक को आचार-अनाचार के भेद का पता कैसे लग सकता है ? इस प्रकार के मुमुक्ष द्वारा आचार की विराधना होने की संभावना रहती है । अत: आचार की सम्यक् आराधना के लिए साधक को बहुश्रुत होना बहुत जरूरी है।
प्रस्तुत अध्ययन पद्यमय है । इसमें ३३ गाथाएँ है । प्रथम ११ गाथाओं में अमुक प्रकार के एकान्तवाद को अनाचरणीय बताते हुए उसका निषेध किया गया है । इसके पश्चात् लोक-अलोक, जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया-अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, संसार, सिद्धि-असिद्धि, देवी-देव साधु-असाधु, कल्याण-अकल्याण का निषेध करने वालों की मान्यताओं को अनाचरणीय बताते हुए लोक आदि के अस्तित्व पर श्रद्धा
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