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सूत्रकृतांग सूत्र
वा आतोद्यमानस्य वा यावत् उपद्राव्यमाणस्य वा यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकृतं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयामि इत्येवं जानीहि सर्वे प्राणाः यावत् सर्वे सत्त्वाः दण्डेन वा यावत् कपालेन वा आतोद्यमानाः वा हन्यमानाः वा तर्ज्य - मानाः वा ताड्यमानाः वा यावद् उपद्राव्यमाणाः वा यावद् रोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकरं दुःखं भयं प्रतिसंवेदयन्ति । एवं ज्ञात्वा सर्वे प्राणाः यावत् सर्वे सत्त्वाः न हन्तव्याः यावन्नोपद्रावयितव्याः । एष धर्मः ध्रुवः नित्यः शाश्वतः समित्य लोकं खेदज्ञ' : प्रवेदितः । एवं स भिक्षुर्विरतः प्राणातिपाततः यावन् मिथ्यादर्शन शल्यतः । स भिक्षुर्नो दन्तप्रक्षालनेन दन्तान् प्रक्षालयेत्, नो अञ्जनं नो वमनं नो धूपनमप्याददीत । स भिक्षुरक्रियः अलूषकः अक्रोधः यावद् अलोभः उपशान्तः परिनिर्वृत्तः । एष खलु भगवता आख्यातः संयतविरतप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा अक्रियः एकान्तपंडित: भवतीति ब्रवीमि ॥ सू० ६७ ॥
संवृतः
अन्वयार्थ
( चोदए आह) फिर प्रेरक (प्रश्नकर्ता ) प्रश्न करता है - (से कि कुव्वं कि कारवं कह संजयविरयप्पडियपच्चक्खायपावकम्मे भवइ ) मनुष्य क्या करता हुआ, क्या कराता हुआ तथा किस तरह संयत, विरत, तथा पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला होता है ? (आयरिए आह) आचार्यश्री कहते हैं - (तत्थ खलु भगवया छज्जीनिकायहेऊ पण्णत्ता तं जहा - पुढवीइकाइया जाव तसकाइया) इस विषय में तीर्थंकर भगवान् ने छह प्रकार के प्राणियों के समूह को कारण बताया है । जैसे कि पृथ्वीका से लेकर त्रसकाय तक के प्राणियों को कारण कहा है। (से जहाणामए दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण बा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्स वा जाव उवद्दविज्जमाणस्स वा मम जाव लोमोक्खणणमायमवि हिसाकरं दुक्खं भयं अस्तं पडिसंवेदेमि) जैसे डंडा, हड्डी, ढेले अथवा मुक्के या ठीकरे से ताड़न किये जाने पर एवं उपद्रव (हैरान) किये जाने पर, यहाँ तक कि एक रोम उखाड़ने पर मैं हिंसाजनित दु:ख और भय तथा असाता का अनुभव करता हूँ | ( इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिज्जमाणे वा हम्ममाणे वा तज्जिज्जमाणे वा तालिज्जमाणे वा जाव उवद्दविज्जमाणे वा जाव लोमुक्खणण मायमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति ) इसी तरह जानना चाहिए कि सभी प्राणी यावत् सभी सत्त्व, डण्डे आदि से लेकर ठीकरे तक के द्वारा मारने पर एवं उपद्रव करने पर तथा रोम मात्र के उखाड़ने पर हिंसाजनित दुःख और भय का अनुभव करते हैं । ( एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सत्ता ण हंतव्वा जाव ण उवेयव्वा ) ऐसा जानकर सभी प्राणी यावत् सभी सत्त्वों को नहीं मारना चाहिए और न उन पर उपद्रव करना चाहिए। ( एस धम्मे धुवे . णिइए सासए समिच्च लोगं खेयन्नेहि
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