SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया २६७ पवेदिए) यह (अहिंसा) धर्म ही ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है तथा लोक के स्वभाव को जानकर श्री तीर्थंकरों द्वारा कहा हुआ है। (एवं से भिक्खू विरए पाणाइवाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ) यह जानकर साधु प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों से विरत होता है। (से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा) वह साधु दाँतों को साफ करने वाले काष्ठ, दतौन या दन्तमंजन आदि अन्य साधनों से दाँतों को साफ न करे । (णो अंजणं णो वमणं णो धूवणित्त वि आइत्ते) नेत्रों में अंजन (काजल) न लगावे, न ही दवा लेकर वमन करे, और न ही धूप के द्वारा अपने वस्त्रों और केशों को सुगन्धित करे । (से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे) वह साधु सावधक्रियारहित, हिंसारहित, कोध, मान, माया और लोग से रहित, उपशान्त एवं पाप से दूर होकर रहे । (एस खलु भगवया संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ, त्ति बेमि) ऐसे त्यागी प्रत्याख्यानी साधक को भगवान् तीर्थंकरदेव ने संयत, विरतियुक्त, पापकर्मों का प्रतिघातक एवं प्रत्याख्यान (त्याग) करने वाला, अक्रिय (सावधक्रियारहित), संवरयुक्त और एकान्त (सर्वथा) पण्डित (होता है) कहा है, यह मैं कहता हूँ। व्याख्या संयत, विरत, पापकर्मप्रत्याख्यानी, कौन और कैसे ? चतुर्थ अध्ययन के इस अन्तिम सूत्र में शास्त्रकार ने प्रश्नकर्ता (प्रेरक) की वह जिज्ञासा अंकित की है, जो उसने आचार्य के सामने प्रस्तुत की है कि भंते ! मनुष्य क्या करता-कराता हुआ और किस उपाय से संयत, विरत एवं पापकर्म का प्रतिघाती तथा प्रत्याख्यानी होता है ? आशय यह है कि हम उसे कैसे पहिचान सकते हैं, कि यह साधु संयत है, विरत है, प्रत्याख्यानी, पाप-प्रतिघाती है ? तथा वह किन कारणों से ऐसा बन पाता है ? इसके उत्तर में आचार्यश्री कहते हैं ---आयुष्मन् ! तीर्थंकरदेव ने संयम के अनुष्ठान के कारण पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के प्राणियों को बताया है। जैसे प्रत्याख्यानरहित प्राणियों के लिए उक्त छहों काय के जीव संसार-परिभ्रमणरूपगति के कारण होते हैं, वैसे ही प्रत्याख्यान करने वाले प्राणियों के लिए वे मोक्षगति के कारण होते हैं। प्रत्याख्यानी संयत-विरत साधक का चिन्तन इस प्रकार का होता है—जिस प्रकार कोई व्यक्ति मुझे डण्डों से, हड्डियों से, मुक्कों से, लातों से, ढेलों से, या ठोकरें आदि किसी साधन से मारे-पीटे, सताए, डराए-धमकाए, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़े तो उस समय मुझे अत्यन्त कष्ट, भय एवं संताप महसूस होता है, उसी तरह मैं भी अगर उक्त षड्कायिक प्राणियों में से किसी भी प्राणा को उपयुक्त किसी भी साधन से मारूंगा, पीटू गा, सताऊँगा, डराऊँ-धमकाऊँगा तो उसे भी दुःख, भय और संताप महसूस होगा। मतलब यह है कि सभी प्राणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy