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चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया
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धारण करते हैं । प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के १८ ही प्रकार के पापों के भागी होते हैं । यही कारण है कि तीर्थंकर प्रभु ने ऐसे जीवों को (संज्ञी हों या असंज्ञी) असंयत, अविरत, अप्रत्याख्यानी, पापकर्म से अप्रतिहत, पापक्रियातत्पर, एवं असंवृत कहा हैं । ऐसे जीव एकान्त हिंसावृत्ति वाले., सर्वथा अज्ञानी और सर्वथा सुषुप्त हैं । उनको मन-वचन-काया के प्रयोग करने की कोई सूझ-बूझ नहीं होती, कर्तव्याकर्तव्य का कोई भान नहीं होता, स्वप्न में भी वह जिस पाप को नहीं जानता, अविरतिमान् होने के कारण उस पाप का कर्ता होता है । तात्पर्य यह है कि असंयत एवं अविरत जीव, चाहे संज्ञी हो या असंज्ञी, अवश्य ही पापकर्म करता है, पापकर्म का भाजन होता रहता है, यह जो कहा गया है, वही सत्य है, वही युक्तियुक्त है ।
मूल पाठ चोदए आह—से कि कुव्वं, किं कारवं, कहं संजयविरयप्पडिहय पच्चक्खायपावकम्मे भवइ ?' आयरिए आह-तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकायहेऊ पग्णत्ता, तं जहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया । से जहाणामए मम अस्सातं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिज्जमाणस्स वा जाव उबद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाण सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिज्जमाणे वा हम्ममाणे वा तज्जिज्जमाणे वा तालिज्जमाणे वा जाव उवद्दविज्जमाणे वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता न हंतव्वा जाव ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिच्च लोगं खेयहि पवेदिए । एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव मिच्छादंसणसल्लाओ। से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो वणित्तं वि आइत्ते, से भिक्खू अकिरिए अल्सए अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे । एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए भवइ, त्ति बेमि ॥सू० ६७॥
संस्कृत छाया चोदकः आह-स किं कुर्वन् किं कारयन्, कथं संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा भवति ? आचार्य आह-तत्र खलु भगवता षड्जीव निकायहेतवः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-पृथ्वीकायिका: यावत् त्रसकायिकाः । तद् यथानम मम असातं दण्डेन वा अस्थ्ना वा मुष्टिना वा लाष्टेन वा कपालेन
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