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________________ २६० सूत्रकृतांग सूत्र दूसरा है - असंज्ञिदृष्टान्त । (से किं तं सन्निदिट्ठेते ? ) वह संज्ञी का दृष्टान्त क्या है ? (जे इमे सन्निपचिदिया पज्जतगा, एतेसि णं छज्जीवनिकाए पडुच्च, तं जहा --- पुढवीकार्य जावतकार्य) जो ये प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं, इनमें पृथ्वी - काय से लेकर त्रसकाय तक षड्जीवनिकाय के जीवों के विषय में से ( से एगइओ पुढवीarvi free as fव कारवेइ वि) कोई पुरुष यदि पृथ्वीकाय से ही अपना आहारादि कृत्य करता भी है, कराता भी है । ( तस्म णं एवं भवइ अहं पुढवीकाएण किच्चं करोमि विकारवेमि वि) उसके मन में ऐसा विचार होता है कि मैं पृथ्वीकाय से अपना कार्य करता भी हूँ और कराता भी हूँ ( या अनुमोदन करता हूँ ) ( णो चेव णं से एवं भवइ) उसे उस समय ऐसा विचार नहीं होता या नहीं कहा जा सकता है कि (इमेण वा इमेण वा से एतेणं पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि) वह इस या इस (अमुक) पृथ्वी से ही कार्य करता भी है, कराता भी है । सम्पूर्ण पृथ्वी से नहीं (से एते पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि) उस सम्बन्ध में यही कहा जाता है कि वह पृथ्वी काय से ही कार्य करता है, और कराता है । ( से णं तओ पुढवीकायाओ अजय-अविरय अपहिय-अपच्चक्खाय-पावकस्मे यावि भवइ) अत: वह पुरुष पृथ्वीकाय का असंयमी, उससे अविरत और उसकी हिंसा का प्रतिघात ( नाश) और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है, ( एवं जाव तसकाएति भाणियव्वं ) इसी तरह त्रसकाय तक के प्राणियों के विषय में भी कहना चाहिए। ( से एगइओ छज्जीवनिकाएहि किच्चं करेइ वि arras वि तस्स णं एवं भवइ - - एवं खलु छज्जीवनिका एहि किच्चं करेमि वि कारवेमि वि) जैसे कोई पुरुष छह काया के जीवों से कार्य करता है और कराता है तो वह यही कह सकता है, कि मैं छह काया के जीवों से कार्य करता हूँ और कराता हूँ । (जो चेव से एवं भवइ – इमेहिं वा इमेहि वा) उस व्यक्ति को ऐसा विचार नहीं होता या उसके विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक-अमुक जीवनिकाय से ही कार्य करता है और कराता है ( सबसे नहीं) । ( से य तेहि छह जीवनिकाएहि जाव ards fa) क्योंकि वह सामान्य रूप से उन छहों जीवनिकायों से कार्य करता है और कराता है, (सेय तेहि छह जीवनिकाएहि असंजय - अविरय- अप्पडिहय- अपच्चक्खाय पावकम्मे तं जहा - पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले ) इस कारण वह पुरुष उन छहों काय के जीवों की हिंसा से असंयत, अविरत है, और उनकी हिंसा आदि पापकर्मों का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है, अतः वह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक सभी पापों का सेवन करने वाला है ( एस खलु भगवया असंजए अविरए अपपिच्चक्खा पावकस्मे अक्खाए) तीर्थंकर भगवान् ने ऐसे व्यक्ति को असंयत, अविरत, अप्रतिहतपाप एवं अप्रत्याख्यातपापकर्म वाला कहा है । (सुविणमवि अपस्सओ सेय पावे कम्मे कज्जइ) चाहे वह पुरुष स्वप्न भी न देखता हो यानी अव्यक्त --- अस्पष्ट चेतना (विज्ञान) से युक्त हो, तो भी वह पापकर्म करता है, ( से तं सन्निट्ठिते) यह संज्ञि का दृष्टान्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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