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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया २६१ (से किं तं असन्निदिद्रुते ?) प्रश्नकर्ता पूछता है कि वह असंज्ञिदृष्टान्त क्या है ? (जे इमे असन्निणो पाणा, तं जहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया छठा वेगइया तसा पाणा) पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक पाँच स्थावर एवं छठे जो त्रससंज्ञक जों असंज्ञीजीव हैं, वे असंज्ञी हैं। (जे सि नो तक्काइ वा सन्नाइ वा पन्नाइ वा मणाइ वा वई वा सयं वा कारणाए अन्नहि वा कारावेत्तए, करतं वा समणुजाणित्तए) जिनमें न तर्क है, न संज्ञा है, न प्रज्ञा (बुद्धि) है, न मनन करने की शक्ति है, न वाणी है और जो न तो स्वयं कर सकते हैं, और न ही दूसरे से करा सकते हैं और न करते हुए को अच्छा समझ सकते हैं, (तेवि गं बाले सवेसि पाणाणं जाव सङ्केसि सत्ताणं दिया वा राओ वा, सुत्ते वा जागरमाणे वा अमितभूया मिच्छासंठिया निच्चं पसढविउवायचित्तदंडा) वे अज्ञानी प्राणी भी समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों एवं समस्त सत्त्वों के दिन-रात, सोते-जागते हर समय शत्रु-से बने रहते हैं, उन्हें धोखा देना चाहते हैं एवं उनके प्रति सदेव हिंसात्मक चित्तवृत्ति रखते हैं । (तं जहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले) अतः वे प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों से सदा लिप्त रहते हैं । (इच्चेवं जाव णो चेव मणो, णो चेव वई) इस प्रकार यद्यपि उनके मन नहीं होता और वाणी भी नहीं होती (पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परितप्पणयाए ते दुक्खण सोयण जाव परितप्पण वहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति) तथापि द्रव्य मन के अतिरिक्त उनके भावमन भी न होने के कारण वे समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों एवं सत्त्वों को दुःख देने, शोक उत्पन्न करने, विलाप करने, रुलाने, वध करने, परिताप देने, या उन्हें एक ही साथ दुःख, शोक, विलाप, संताप, रुदन, पीड़न, वध-बंधन, परिक्लेश आदि करने से विरत नहीं होते अपितु पापकर्म में सदा रत रहते हैं । (इइ खलु से असंनिणोऽवि सत्ता अहोनिसि पाणाइवाए उवक्खाइज्जति जाव अहोनिसि परिग्गहे उवक्खाइज्जंति जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति) इस प्रकार वे प्राणी असंज्ञी होते हुए भी अहनिश प्राणातिपात (हिंसा) में तथा मृषावाद आदि से लेकर परिग्रह में तथा वहाँ से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के समस्त पापस्थानों में रातदिन प्रवर्तमान कहे जाते हैं। (सव्वजोणियावि खलु सत्ता सन्निणो हुच्चा असन्निणो होंति, असन्निणो हुच्चा सन्निणो होंति) सभी योनियों के प्राणी निश्चित रूप से संज्ञी होकर असंज्ञी हो जाते हैं, तथा असंज्ञी होकर संज्ञी हो जाते हैं । (होच्चा सन्नी अदुवा असन्नी, तत्थ से अविविचित्ता अविधुणित्ता असमुच्छित्ता अणणुतावित्ता) वे संज्ञी या असंज्ञी होकर यहाँ पापकर्मों को अपने से अलग न करके, तथा उन्हें न झाड़कर, एवं उनका उच्छेद न करके तथा उनके लिए पश्चात्ताप न करके (असन्निकायाओ सन्निकाए संकमंति) वे असंज्ञी के शरीर से संज्ञी के शरीर में आते हैं, (सन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति) तथा संज्ञी के शरीर से असंज्ञी के शरीर में आते हैं। (सन्निकायाओ वा सन्निकायं संकमंति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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