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चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख् यान-क्रिया
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है और न ही सुना है । हम यह भी नहीं जानते कि वे हमारे शत्रु हैं, या मित्र हैं । अर्थात् हम उन्हें देखते भी नहीं हैं, सुनते भी नहीं है । वे न तो किसी के शत्रु हैं और न ही किसी के मित्र, फिर उनके प्रति किसी का हिंसामय भाव होना कैसे सम्भव है ? एक-एक प्राणी को लेकर घातकं मनोवृत्ति धारण करना दिन-रात, सोते-जागते उन प्राणियों के प्रति शत्रुता धारण करना, और असत्यबुद्धि रखना, अत्यन्त शठतापूर्वक हिंसा में चित्त लगाना, तथा प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों में प्रवृत्ति करना, आदि अनहोनी बातें ऐसे अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत प्राणियों के विषय में कैसे सम्भव हो सकती हैं ? अतः समस्त अप्रत्याख्यानी अविरत प्राणी समस्त प्राणियों के प्रति हिंसाभाव रखते हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है ।
सारांश
प्रश्नकर्ता एक तर्क प्रस्तुत करता है कि इस जगत् में बहुत से ऐसे सूक्ष्म जीव हैं, जो हमारे देखने-सुनने में भी नहीं आते, उनके प्रति हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ? अथवा उन अज्ञात सूक्ष्म प्राणियों में अन्य प्राणियों के प्रति रात-दिन सोते-जागते शत्रुता या हिंसा की भावना कैसे हो या रह सकती है, जबकि वे अन्य प्राणियों से परिचित भी नहीं है ।
मूल पाठ
आयरिए आह - तत्थ खलु भगवया दुवे दिट्ठता पण्णत्ता, तं जहानदिय असनिट्ठिते य । से किं तं सन्निदिट्ठ ते ? जे इमे सन्निपंचिदिया पज्जत्तगा एतेसि णं छज्जीवनिकाए पडुच्च, तं जहा - पुढवीकायं जाव तसका । से एगइओ पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि तस्स णं एवं भवइ - एवं खलु अहं पुढवीकारणं किच्चं करेमि वि कारवेमि वि । णो चेव
से एवं भवइ - इमेण वा इमेण वा से एतेणं पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि कारवेइ वि से णं तओ पुढवीकायाओ असंजय - अविरय- अप्पडिहयपच्चवखाय पावकम्मे यावि भवइ । एवं जाव तसकाएत्ति भाणियव्वं । से एगइओ छज्जीवनिकाएहि किच्चं करेइ वि कारवेइ वि, तस्स णं एवं भवइएवं खलु छज्जीवनिकाएहिं किच्वं करेमि विकारवेमि वि, णो चेव णं से एवं भवइ – इमेहिं वा इमेहिं वा । से य तेहि छह जीवनिकाएहिं जाव कारवेइ वि से य तेहि छहिं जीवनिकाह असंजय- अविरय- अप्पडिय-पच्चक्खाय पावकम्मे, तं जहा - पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले । एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्प डिहय-पच्चक्खायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ, से तं सन्निट्ठिते ।
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