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________________ २८६ संस्कृत छाया नायमर्थः समर्थः (चोदकः ) इह खलु बहवेः प्राणाः भूता जीवाः सत्त्वाः , सन्ति येऽनेन शरीरसमुच्छ्रयेण न दृष्टाः वा न श्रुताः वा नाभिमताः वा न विज्ञाताः 1: वा, येषां प्रत्येकं प्रत्येकं चित्तं समादाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो वा जाग्रद् वा अत्रिभूतः मिथ्यासंस्थितः नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः तद्यथा प्राणातिपाते याव मिथ्यादर्शनशल्ये ।। सू० ६५ ।। अन्वयार्थ प्रश्नकर्ता कहता है - ( जो इणट्ठे समट्ठे) पूर्वोक्त बात यथार्थ नहीं है (इह खलु बहवे पाणा भूया जीवा सत्ता संतिजे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा सुया वा नाभिमया वा विनाया वा ) इस जगत् बहुत से ऐसे प्राणी हैं जिनके शरीर का प्रमाण कभी देखा नहीं गया, न सुना ही गया है, वे प्राणी न तो अपने अभिमत (इष्ट) ही हैं और न ज्ञात ही हैं । ( जेंस णो पत्ते पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्त वा जागरमाणे व अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे तं जहा - पाणाइवाए जात्र मिच्छास सल्ले ) अतः समस्त ( हर एक ) प्राणियों के प्रति हिंसामय चित्त रखते हुए दिन-रात, सोते-जागते उनका अमित्र ( शत्रु) बना रहना तथा उनको धोखा देने के लिए तलर रहना एवं सदा उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसामय चित्त रखना ऐसे (पूर्वोक्त अज्ञात) प्राणियों के लिए सम्भव नहीं है । इसी तरह प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के पापों में उन प्राणियों का लिपटे रहना भी सम्भव नहीं है । व्याख्या अव्यक्त अज्ञात प्राणियों का पापकर्म करना : सम्भव या असम्भव ? सूत्रकृतांग सूत्र इस सूत्र में शास्त्रकार ने प्रश्नकर्ता के द्वारा अज्ञात, अदृष्ट, अव्यक्त एवं अश्रुत प्राणियों के विषय में पापकर्मबन्धन मानने से इन्कार की प्रतिध्वनि अभिव्यक्त की है । प्रश्नकर्ता का कहना है- आपश्री के कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी प्राणी सभी के शत्रु हैं । परन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं है कि अज्ञानी, अविरत एवं अप्रत्याख्यानी जीव सब प्राणियों के शत्रु हैं, हिंसक हैं; क्योंकि हिंसा का भाव परिचित प्राणियों पर ही होता है, अपरिचित प्राणियों पर नहीं । संसार में बहुत से सूक्ष्म और बादर, त्रस और स्थावर, पर्याप्त और अपर्याप्त प्राणी हैं, जिनके शरीर का परिमाण ( कद ) इतना छोटा है कि वह न कभी देखा जाता है, और न सुना जाता है । अनन्त - अनन्त प्राणी ऐसे हैं जो देश काल, एवं स्वभाव से अत्यन्त दूरवर्ती हैं, वे इतने सूक्ष्म और दूर हैं कि हमारे जैसे अग्दर्शी पुरुषों ने न तो उन्हें कभी देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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