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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया २८५ (३) दोनों को अवसर नहीं है । (४) दोनों को है। उक्त दृष्टात को और अधिक स्पष्ट करने हेतु आचार्य फिर प्रश्नकर्ता को समझाते हैं-गृहपति, उसके पुत्र, राजा और राजपुरुष की हत्या का इच्छुक हत्यारा पुरुष यद्यपि अवसर न मिलने के कारण उनकी हत्या नहीं करता तथापि वह दिन-रात सोते-जागते हर समय उनके वध की ताक में रहता है, वह रात-दिन इस उधेड़बुन में लगा रहता है, अतः वह जैसे गृहपति आदि का मित्र नहीं, शत्रु है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी पापों से अविरत, असंयती जीव भी समस्त प्राणियों के प्रति पूर्वोक्त प्रकार से शठता (दुष्टता) पूर्ण हिंसादि पाप का मनोरथ मन में हरदम संजोये रखते हैं। इसलिए वे अहिंसक या पाप न करने वाले नहीं कहे जा सकते । बात यह है कि जिन प्राणियों का मन राग-द्वेष से पूर्ण और अज्ञान से आवृत्त है वे सभी अन्य समस्त प्राणियों के प्रति दुषित भाव रखते हैं । इन दूषित भावों से विरति जब तक नहीं होती, तब तक वे पापकर्मबन्ध से जरा भी छुटकारा नहीं पा सकते । एक मात्र विरति (प्रत्याख्यानक्रिया) ही भावों को शुद्ध करने वाली है। यह जिनपे नहीं है, वे प्राणी सभी प्राणियों के भाव से वैरी हैं चाहे वे स्थूलरूप से उनका घात करते दिखाई न देते हों। जिनके घात का अवसर उन्हें नहीं मिलता, उनका घात उनसे न होने पर भी वे उनके अघातक नहीं कहे जा सकते । अतः उपर्युक्त साधनों के अभाव से ही अप्रत्याख्या नी, अविरत एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चीन्द्रय तक के सभी जीव चाहे दूसरे प्राणियों का घात न करते हों, परन्तु उनमें घात करने का भाव तो बना ही रहता है। अतः पहले जो कहा गया था कि जिस प्राणी ने पाप का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह चाहे स्पष्ट चेतना विज्ञान से हीन ही क्यों न हो, पापकर्म करता ही है, यही सर्वथा सत्य एवं सिद्धान्तसम्मत है। ___आचार्यश्री द्वारा युक्तिसंगत एवं सिद्धान्तसम्मत बात सुनकर प्रेरक (प्रश्नकर्ता शिष्य) ने विनीत भाव से स्वीकार कर लिया कि "पूज्यवर ! आप कहते हैं, वही सत्य है, यही मन्तव्य मुझे स्वीकृत है।" फिर भी प्रेरक अभी उक्त मन्तव्य को विशेषरूप से समझने हेतु दूसरे पहलू को लेकर आचार्यश्री के समक्ष प्रतिप्रश्न प्रस्तुत करता है मूल पाठ __णो इण8 सम8 (चोयए) इह खलु बहवे पाणा भूया जीवा सत्ता संति, जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो दिट्ठा वा सुया वा, नाभिमया वा विन्नाया वा, जेसि णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए निच्चं पसढविउवायचित्तदेंडे, तं जहापाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले ॥ सू० ६५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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