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________________ २८४ सूत्रकृतांग सूत्र एवं सुषुप्त ही क्यों न हो, फिर भी उसके द्वारा पापकर्म किया जाता है । भले ही वह जीव अवसर, साधन और शक्ति आदि कारणों के अभाव में उन षट्कायिक जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा न कर सकता हो, फिर भी वह प्राणी अहिंसक या पापकर्म रहित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक के, तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापों से निवृत्त नहीं होता । बल्कि वह (ओघसंज्ञा से) सदा निष्ठुरतापूर्वक प्राणिघात में लगा रहता है, चाहे वह उन प्राणियों की हिंसा कर सके या नहीं, परन्तु है वह हिंसक ही । निष्कर्ष यह है कि जो १८ पापों से विस नहीं है, जिसने पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया है, वह जीव चाहे कैसी भी अवस्था में क्यों न हो, वह एकेन्द्रिय हो या विकलेन्द्रिय, परन्तु मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से युक्त होने के कारण वह अवश्य ही पापकर्म करता है, उससे रहित नहीं रहता। जहाँ पापकर्मबन्ध के कारण (१८ पापस्थान) मौजूद हैं, पापकर्मबन्ध कैसे नहीं होगा ? अवश्य होगा। सिद्धों में कर्मबन्ध के कारण ही नहीं हैं इसलिए कर्मबन्धरूप कार्य नहीं होता। इस सिद्धान्त को स्पष्टतया समझाने के लिए आचार्य भगवान् द्वारा प्ररूपित एक दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं -मान लो, एक व्यक्ति हत्यारा है, वह किसी कारणवश किसी गृहस्थ या उसके पुत्र अथवा राजा या राजपुरुष की हत्या करना चाहता है । वह उन पर क्रुद्ध होकर सदा इसी ताक में रहता है कि कब मौका मिले और कब मैं उनके मकान में घुसकर उनका काम तमाम करूं । वह हत्यारा जब तक मनोरथ को सफल करने का अवसर नहीं पाता, तब तक वह दूसरे कार्यों में लगा हुआ उदासीन-सा बना रहता है। यद्यपि मौका न मिलने से वह उपयुक्त चारों में से किसी की भी हत्या नहीं कर पाता, तथापि उसके हृदय में हरदम उनकी हिंसा की होली जलती रहती है। भावों से तो वह सदैव उनके घात के लिए तत्पर रहता है, किन्तु अवसर न मिलने से वह घात नहीं कर पाता। अतः घात न करने पर भी वह (वधक पुरुष) सदा उनका घातक ही है। इसी तरह अप्रत्याख्यानी, अविरत, १८ प्रकार के पापकर्मों से अनिवृत्त, एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय प्राणी भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों से अनुगत (युक्त) होने के कारण प्राणातिपात आदि पापों से दूषित ही हैं । वे उनसे निवृत्त नहीं है। __ जैसे अवसर न मिलने से गृहपति आदि का घात न करने वाला पूर्वोक्त हत्यारा उनका अवैरी नहीं, अपितु वैरी ही है, उसी तरह प्राणियों का घात न करने वाले अप्रत्याख्यानी, अविरत, पापकर्मों से अनिवृत्त जीव भी प्राणियों के शत्रु हैं, मित्र नहीं। यहाँ वध्य और वधक के सम्बन्ध में यहाँ चार भंग निष्पन्न होते हैं, वे इस प्रकार हैं (१) वधक (घातक) को घात करने का अवसर है, वध्य को नहीं । (२) वधक को घात करने का अवसर नहीं है, वध्य को है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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