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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया २८३ भी पापकर्म का बन्ध होता है, तब तो सिद्ध (मुक्त) आत्माओं को भी पापकर्म का बन्ध होना चाहिए। प्रश्नकर्ता अपनी बात को परिपुष्ट करने की दृष्टि से कहता है--जो ऐसा कहते हैं कि पापरहित मन-वचन-काया वाले हिंसा न करते हुए को, मनोविकल तथा विचारहीन मन-वचन-काया एवं वाक्य वाले को तथा अस्पष्ट ज्ञान (चेतना) वाले को भी पापकर्म होता है, यह ठीक नहीं है । प्रश्नकर्ता का आशय यह है कि जो समनस्क है, सोच-समझकर मन-वचनकाया एवं वाक्य में प्रवृत्ति करता है, हिंसा करता है, उसी को पापकर्म का बन्ध होता है, इसके विपरीत जो अमनस्क है, तथा समझ-बूझकर मन, वचन, शरीर एवं वाक्य में प्रवृत्त नहीं होता, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता। प्रश्नकर्ता के युक्तिपूर्वक स्वमन्तव्य-प्रतिपादन में यह भी गभित है कि वह आचार्य से अपनी बात स्वीकृत कराना चाहता है, और अपनी बात पर सत्यता की मुहर-छाप लगवाना चाहता है कि मेरी बात ठीक है न ? आचार्य (प्रज्ञापक) प्रश्नकर्ता के विवादास्पद मन्तव्य का उसकी बात से असहमत होते हुए युक्तिपूर्वक समाधान करते हैं - 'तं सम्मं जं मए पुव्वं वृत्तं' हे जिज्ञासु प्रश्नकर्ता ! मैंने पहले जो कहा था कि पूर्वोक्त प्रकार के जीवों को भी कर्मबन्ध है, वही सत्य है, असत्य नहीं । अर्थात् पापमय मन-वचन-काया के न होने पर भी तथा मन-वचन-काया सम्बन्धी विकार न होने पर भी ऐसे अमनस्क जीवों द्वारा भी पापकर्म होता है । प्रश्नकर्ता के पूर्वोक्त मन्तव्य का सहसा खण्डन होते ही, अप्रत्याशित रूप से विस्मित होकर वह प्रश्नकर्ता प्रतिप्रश्न करता है -आपने जो कहा है, उसके पीछे हेतु क्या है ? आचार्य सैद्धान्तिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं-आयुष्मन् ! भगवान ने छहों जीवनिकायों को कर्मबन्ध का कारण कहा है। छह जीव निकाय तो तुम जानते ही हो, वे पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीव हैं । षड्जीवनिकायों में समनस्क एवं अमनस्क दोनों प्रकार के जीव आ जाते हैं। जो जीव इन छह जीवनिकायों के जीवों की हिंसा से विरत नहीं है, जिसने किसी भी प्रकार से पापकर्म से विरत होने का प्रत्याख्यान नहीं किया है, अर्थात् जिस प्राणी ने वर्तमान काल में षट्काय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पापकर्म को उसकी स्थिति एवं अनुभाग को ह्रास करके नष्ट नहीं किया, तथा पूर्वकृत पाप की निन्दा (पश्चात्ताप) करके भविष्य में पुनः न करने का संकल्प-प्रत्याख्यान करके उक्त पापों से विरत नहीं हुआ है, भले ही उसके मन-वचन-काया पापयुक्त न हों, वह प्रत्यक्ष हिंसा करता न दीखता हो, मन वचन-काया का विचारपूर्वक प्रयोग न करता हो, जिसकी चेतना अव्यक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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