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सूत्रकृतांग सूत्र
तक के १८ ही पापों से अविरत अज्ञानी जीव दिन-रात सोते-जागते सदैव उन प्राणियों का शत्रु बना रहता है, उन्हें धोखा देने का दुष्ट विचार रखता है एवं निरन्तर उनके प्रति शठतापूर्ण हिंसामय नीच चित्त लगाये रखता है । स्पष्ट है कि ऐसे अज्ञानी जीव जब तक प्रत्याख्यान नहीं करते, तब तक वे पापकर्म से जरा भी विरत नहीं होते । वे पापकर्म से सदैव लिप्त रहते हैं ।
व्याख्या
पापकर्म से सदा लिप्त कौन है, कौन नहीं ?
प्रत्याख्यातक्रियारहित प्राणी के सन्दर्भ में पापकर्म के बन्धन से युक्त कौन है, कौन नहीं, इस विषय में प्रेरक (प्रश्नकर्ता - जिज्ञासु ) द्वारा पूर्वपक्ष प्रस्तुत किये जाने पर आचार्य (प्ररूपक या प्रज्ञापक) सिद्धान्तसम्मत समाधान करते हैं, दृष्टान्त द्वारा सैद्धान्तिक बात को सिद्ध करते हैं, यह सूत्र में शास्त्रकार ने अंकित किया है ।"
MAMALAN
अव्यक्त चेतना अर्थात् जिसका ऐसे पुरुष को
को
उस जीव स्पष्ट करता
हुआ कहता है
प्रेरक (प्रश्नकर्ता) आचार्य ( प्रज्ञापक) के पूर्वसूत्रोक्त अभिप्राय को जानकर उस सम्बन्ध में विशिष्ट स्पष्टीकरण हेतु आचार्य से निषेधात्मक रूप से कहता हैपूज्यवर ! जिस प्राणी के मन, वचन और काया पापकर्म में लगे हुए नहीं हैं. पाप-लिप्त नहीं हैं, तथा जो प्राणियों का घात नहीं करता, जो अमनस्क है, मन से हीन है तथा जिसका मन, वचन, काया और वाक्य पाप के विचार से रहित है तथा जो पाप करने का स्वप्न भी नहीं देखता, यानी अत्यन्त वाला है, ऐसा प्राणी पापकर्म करने वाला नहीं माना जा सकता, पाप से रहित है और जो जीवहिंसा नहीं करता किसी भी प्रकार से नहीं होता । किस कारण से होता ? इस सम्बन्ध में प्रश्नकर्ता अपनी बात को जब मन पापयुक्त होता है, तभी प्राणी के द्वारा मानसिक पाप किया जाता है, जब वचन पापयुक्त होता है, तभी उसके द्वारा वाचिक पाप किया जाता है, और जब काया पापयुक्त होती है, तभी उसके द्वारा कायिक पापजनित बन्ध हो सकता है । परन्तु जिन प्राणियों का विज्ञान अव्यक्त है, अतएव जो पापकर्म के साधनों से हीन हैं, उनके द्वारा पापकर्म किया जाता कैसे सम्भव है ? अलबत्ता, जो प्राणी समनस्क हैं, प्राणियों की हिंसा करते हैं, जिनके मन, वचन, काया और वाक्य पाप के विचार से युक्त हैं तथा जो स्वप्न भी देखते हैं, यानी जो स्पष्ट विज्ञान वाले प्राणी हैं इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त प्राणी तो पापकर्म करते हैं, यह प्रत्यक्षसिद्ध है । परन्तु जिन प्राणियों में प्राणिवात करने योग्य मन, वचन, काया के व्यापार नहीं होते, वे पापकर्म करते हैं, यह कैसे हो सकता है ? जिनमें पाप के पूर्वोक्त कारण नहीं हैं, उन्हें पापकर्म का बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि न्यायशास्त्र का सिद्धान्त है कि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता । यदि मन, वचन, काया के व्यापार के बिना
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मन, वचन, काय पापकर्म का बन्ध
पापकर्मबन्ध नहीं
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