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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया २७६ वतीए, असंतएणं पावएणं कारणं) पापयुक्त मन, पापयुक्त वचन एवं पापयुक्त काय न होने पर (अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावेकम्मे णो कज्जइ) जो प्राणी का घात नहीं करता, जिसका मन, वचन, शरीर और वाक्य हिंसा के विचार से रहित है, जो पाप करने का स्वप्न भी नहीं देखता, अर्थात् जिसमें ज्ञान की थोड़ी-सी अव्यक्त मात्रा है, ऐसा प्राणी पापकर्म का बन्ध नहीं करता। (कस्स णं तं हेउं ?) किस कारण से उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता ? (चोयए एवं बवीति) प्रश्नकर्ता इस प्रकार कहता है--(अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ) पापयुक्त मन होने पर ही मानसिक (मन सम्बन्धी) पापकर्म किया जाता है । (अन्नयरीए वतीए वतिवत्तिए पावेकम्मे कज्जइ) तथा पापयुक्त वचन होने पर ही वचन द्वारा पापकर्म किया जाता है, (अन्नयरेणं पावएणं काएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ) एवं पापयुक्त शरीर होने पर ही शरीर द्वारा पापकर्म किया जाता है । (हणंतस्त समणक्खस्स सवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि पस्सओ एवं गुणजातीयस्स पावे कम्मे कज्जइ) जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो समझ-बूझकर (विचारपूर्वक) मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता है, और जो स्पष्ट विज्ञानयुक्त (स्वप्नदर्शी) भी है, ऐसे गुणों (विशेषताओं) वाला जीव ही पापकर्म करता है, (पुणरवि चोयए एवं बवोति) पुनः प्रश्नकर्ता इस प्रकार कहता है - (तत्थ णं जे ते एवमाहंसु असंतएणं पावएणं मणेणं असंतियाए पावियाए वतीए असंतएणं पावएणं कारणं अवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ) इस विषय में जो लोग ऐसा कहते हैं कि मन पापयुक्त हो, वचन पापयुक्त हो एवं काया पापयुक्त हो तथा पापयुक्त मन, वचन, काया और वाक्य के विचार से रहित हो, स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो यानी अव्यक्त विज्ञान वाला पापकर्म करता है, (तत्य णं जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु) इस विषय में जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। (तत्थ पनवए चोयगं एवं बयासी) इस सम्बन्ध में उत्तरदाता (प्ररूपक) ने प्रश्नकर्ता (प्रेरक) से इस प्रकार कहा-(तं सम्मं जं मए पुव्वं वृत्तं) वही यथार्थ है, जो मैंने पहले कहा है । (पावएणं मणेण असंतएणं पावियाए वतीए असंतियाए पावएणं काएणं असंतएणं) पापयुक्त मन चाहे न हो, तथा पापयुक्त वचन एवं पापयुक्त शरीर न भी हों, (अहणं तस्स) वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, (अमगक्खस्स) वह मनोविकल हो, (अवियारमणवयणकायवककस्त) वह चाहे मन, वचन, काया और वाक्य का समझबूझकर (विचार-सहित) प्रयोग न करता हो, (सुविणमवि अपस्सओ) और स्वप्न भी न देखता हो, यानी भले ही वह अव्यक्त चेतनाशील हो, (पावे कम्मे कज्जइ तं सम्म) ऐसा जीव भी पापकर्म करता है, यह सत्य है । (कस्स णं तं हे उं ?) आपके इस कथन के पीछे क्या कारण है ? प्रश्नकर्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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