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सूत्रकृतांग सूत्र
मौका पाते ही उसका काम तमाम कर दूंगा । ऐसा सोचने वाला व्यक्ति चाहे सोया हो, चाहे जागता, चल रहा हो या बैठा, उसके मन में तो निरन्तर हत्या की दुर्भावना बनी रहती है। वह किसी भी समय अपनी इस दुर्भावना को कार्यरूप में परिणत कर सकता है । अपनी इस दुष्ट मनोवृत्ति के कारण वह प्रतिपल कर्मबन्ध करता रहता है । इसलिए जो जीव प्रत्याख्यानरहित हैं, सर्वथा संयमहीन हैं, वे समस्त षड्जीवनिकाय के प्रति हिंसकभावना रखने के कारण निरन्तर कर्मबन्ध करते रहते हैं । अतएव संयमी साधक के लिए सावद्ययोग का प्रत्याख्यान आवश्यक है। जितने अंश में सावद्य-वृत्ति का त्याग होगा, उतने ही अंश में पापकर्म का बन्धन रुकेगा। यही प्रत्याख्यान की उपयोगिता है।
असंयत एवं अविरत के लिए अमर्यादित मनोवृत्ति के कारण पाप के समस्त द्वार खुले रहते हैं, अत: उसके पाप कर्मबन्धन की सम्भावना भी सब प्रकार से रहती है । इस सम्भावना को अल्प या मर्यादित करने के लिए प्रत्याख्यानरूप क्रिया की आवश्यकता रहती है।
यह अध्ययन पूरा का पूरा गद्यमय है, चार सूत्रों में इसका पाठ है और पिछले अध्ययनों की भाँति संवादरूप है; क्योंकि इसका प्रारम्भही 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खाय' से किया गया है। इसमें एक पूर्वपक्षी अथवा प्रेरक शिष्य है तथा दूसरा उत्तरपक्षी या समाधानकर्ता आचार्य हैं ।
प्रत्याख्यान की उपयोगिता बताने के लिए इस अध्ययन का क्रमप्राप्त प्रथम सूत्र निम्न है
मूल पाठ सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं-'इह खलु पच्चक्खाण-किरि याणामज्झणे, तस्स णं अयमढे पण्णत्ते-आया अपच्चक्खाणीयावि भवइ, आया अकिरियाकुसले यावि भवइ आया मिच्छासंठिए यावि भवइ, आया एगंतदंडे यावि भवइ, आया एगंतबाले यावि भवइ, आया एगंतसुत्ते यावि भवइ, आया अवियारमण-वयण-कायवक्के यावि भवइ, आया अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवइ, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहय-अपच्चक्खाय पावकम्मे सकिरिए असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ पावे य से कम्मे कज्जई ॥ सू० ६३ ॥
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