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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् तेन भगवता एवमाख्यातम् । इह खलु प्रत्याख्यानक्रियानामाध्ययनम्, तस्य चायमर्थः प्रज्ञप्तः । आत्मा अप्रत्याख्यानी अपि भवति, आत्माऽक्रियाकुशलश्चाऽपि भवति, आत्मा मिथ्यासंस्थितश्चाऽपि भवति, आत्मा एकान्तदण्डश्चाऽपि भवति, आत्मा एकान्तबालश्चाऽपि भवति, आत्मा एकान्तसुप्तश्चाऽपि भवति, आत्माऽविचारमनोवचनकायवाक्यश्चाऽपि भवति, आत्माऽप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्माऽपि भवति । एष खलु भगवताऽऽख्यातोऽसंयतोऽविरतोऽप्रतिह्ताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽसंवृतः एकान्तदण्ड: एकान्तबालः एकान्तसुप्तः । स बालोऽविचारमनोवचनकायवाक्यः स्वप्नमपि न पश्यति, पापं च कर्म करोति ।। सू०६३ ।। अन्वयार्थ (आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं मे सुयं) आयुष्मन् ! भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था और मैंने सुना है । (इह खलु पच्चक्खाणकिरियाणामज्झयणे तस्स णं अयमढे पण्णत्ते) इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया नाम का अध्ययन है, उसका अर्थ यह बताया है कि (आया अपच्चक्खाणी यावि भवइ) आत्मा यानी जीव अप्रत्याख्यानी .. सावद्यकर्मों का त्याग न करने वाला होता है। (आया अकिरिया-कुसले यावि भवइ) आत्मा अक्रिया (शुभक्रिया न करने) निपुण भी होता है, (आया मिच्छासंठिए यावि भवइ) आत्मा मिथ्यात्व के उदय में स्थित भी होता है, (आया एगंतदण्डे यावि भवइ) आत्मा दूसरे प्राणियों को एकान्त रूप से दण्ड देने वाला होता है, (आया एगंतबाले यावि भवइ) आत्मा एकान्त बाल यानी अज्ञानी भी होता है, (आया एगंतसुत्ते यावि भवइ) आत्मा एकान्तरूप से सुषुप्त भी होता है। (आया अवियारमणवयणकायवक्के यावि भवइ) आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य का विचार न करने वाला भी होता है (आया अप्पडिय-अपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवइ) आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत - घात और प्रत्याख्यान नहीं करता है। (एस खलु भगवया असंजए अविरए अप्पडिहय-अपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुते अक्खाए) इस जीव को भगवान् ने असंयत (संयमहीन), अविरत (विरतिरहित), पापकर्म का विधात और प्रत्याख्यान न किया हआ, क्रियारहित, संवररहित, प्राणियों को एकान्त दण्ड देने वाला, एकान्त बाल एवं एकान्त सुप्त कहा है। (से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ से य पावे कम्मे कज्जई) वह अज्ञानी, जो मन, वचन, काया और वाक्य के विचार से रहित हो, वह चाहे स्वप्न भी न देखता हो, यानी अत्यन्त अव्यक्त विज्ञान से युक्त हो, तो भी वह पापकर्म करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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