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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रत्याख्यान-क्रिया इससे पहले तृतीय अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। तीसरे अध्ययन के अन्त में आहारगुप्ति (आहारशुद्धि)रखने की शिक्षा दी गई है । आहारशुद्धि से कल्याण की प्राप्ति और आहार की अशुद्धि से अनर्थ-प्राप्ति बताई गई है। इसलिए विवेकी और श्रेयोऽभिलाषी साधकों को आहारगुप्ति का पालन करना चाहिए । परन्तु आहार की गुप्ति (शुद्धि की रक्षा) प्रत्याख्यान के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए आहारशुद्धि के कारणभूत प्रत्याख्यान की क्रिया का उपदेश देने के लिए चतुर्थ अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन का संक्षिप्त परिचय चतुर्थ अध्ययन का नाम प्रत्याख्यान क्रिया है । प्रत्याख्यान का अर्थ है-अहिंसादि मूलगुणों एवं सामायिक आदि उत्तरगुणों के आचरण में बाधक प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग करना । प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार की प्रत्याख्यान क्रिया के सम्बन्ध में निरूपण है। प्रत्याख्यान क्रिया निरवद्य-अनुष्ठानरूप होने के कारण आत्मशुद्धि के लिए साधक है । इसके विपरीत अप्रत्याख्यान क्रिया पावद्यानुष्ठानरूप होने के कारण आत्मशुद्धि के लिए बाधक है। प्रत्याख्यान न करने वाले को तीर्थकरप्रभु ने असंयत, अविरत, असंवृत, बाल, सुप्त एवं पापक्रिय कहा है। ऐसा पुरुष विवेकहीन होने से सतत कर्मवन्ध करता रहता है। इस अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि जो आत्मा षट्काय जीवों के वध-त्याग (हिंसा प्रत्याख्यान) की वृत्ति वाला नहीं है, तथा जिसने उन जीवों को किसी भी समय मारने की छूट ले रखी है, वह आत्मा उक्त षट्जीवनिकाय के जीवों के साथ अनिवार्यतया मित्रवत् व्यवहार करने की वृत्ति से बँधा हुआ नहीं है। वह जब चाहे, जिस किसी प्राणी का वध कर सकता है। उसके लिए पाप-कर्म के बन्धन की सतत सम्भावना रहती है और किसी सीमा तक वह नित्य पाप-कर्म बाँधता भी रहता है, क्योंकि प्रत्याख्यान के अभाव में उसकी वृत्ति सदा सावद्यानुष्ठानरूप रहती है । इसे स्पष्ट करने हेतु शास्त्रकार ने एक सुन्दर उदाहरण दिया है। एक व्यक्ति हत्यारा है। उसने यह सोचा कि अमुक गृहस्थ, गृहस्थपुत्र या राजपुरुष की हत्या करनी है। अभी थोड़ी देर सो जाऊं, फिर उसके घर में घुसकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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