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________________ सूत्रकृतांग सूत्र इसलिए यहाँ स्पष्ट कहा है- “ कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगइया कम्मfoster" अर्थात् प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार ही विभिन्न योनि, गति, स्थिति आदि को प्राप्त करते हैं, कर्म ही उनकी उत्पत्ति का मूल कारण है । कर्म के प्रभाव से सुखी - दुःखी, धनी - निर्धन, बुद्धिमान - मन्दबुद्धि, रोगी- निरोगी, सुडौल बेडौल आदि विभिन्न अवस्थाएँ पा । अतः जो जैसा है, वह सदा वैसा ही रहता है, यह मान्यता मिथ्या समझनी चाहिए । ऐसा मानने पर तो देव सदा देव ही बना रहेगा, नारकी सदा नारकी ही बना रहेगा, फिर तो कर्म सिद्धान्त ही व्यर्थ और नष्ट हो जाएगा । उसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाएगी। इसलिए प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार ही गति, योनि, स्थिति और अवस्था को प्राप्त करते हैं, यह सिद्धान्त ही ध्रुव सत्य और संगत है । इस सिद्धान्त के अनुसार सभी प्राणी अपनी-अपनी योनि के अनुरूप शरीर में पैदा होते हैं, उसी शरीर में रहते हैं और विकसित होते हैं, शरीर का ही आहार करते हैं । २७० यद्यपि सभी प्राणियों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय होता है, तथापि न चाहते हुए भी उन्हें पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से दुःख, संकट आदि सहने पड़ते हैं । उन्हें भोगे बिना वे मुक्त नहीं हो सकते। जो प्राणी जहाँ उत्पन्न होते हैं, वहीं वे आहार करते हैं । वे अपने अज्ञान और अविवेक के कारण आहार के सम्बन्ध में सावद्य - निरवद्य का कोई विचार नहीं करते । अतः सावद्य आहार करके वे अज्ञानी प्राणी दुष्कर्मों के फल भोगने के लिए अनन्तकाल तक संचारचक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं । इसलिए विवेकी साधकों को सदा शुद्ध आहार का ग्रहण एवं सेवन करने के नियमों का पूर्णतया पालन करना चाहिए। साथ ही इन्द्रियों और मन को वश में करके सांसारिक विषयों का चिन्तन छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और संयम की आराधना-साधना में प्रयत्नशील होना चाहिए । जो साधक अपने आहार के सम्बन्ध में ज्ञपरिज्ञा से हेय - उपादेय का विवेक करके प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय ( सावद्य) का त्याग करता है और निरवद्य आहार को अपनाता है, वही साधक संसार सागर को पार करके जन्म-मरण के चक्र से रहित होकर मोक्ष के अक्षय सुख को प्राप्त करता है; क्योंकि अक्षयसुख को प्राप्त करने के लिए शुद्ध संयम पालन एवं आहारशुद्धि के सिवाय जगत् में और कोई सुमार्ग नहीं है । " इस प्रकार मैं कहता हूँ," ऐसा श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि साधकों से कहते हैं । इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का आहारपरिज्ञा नामक तृतीय अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ । ॥ आहार-परिज्ञा नामक तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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