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________________ तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा २३७ ( एवं तणजोगिएसु तणेसु तणत्ताए विउति तणजोणियं तणसरीरं च आहारेन्ति जावमक्खायं ) इसी तरह कई जीव तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होते हैं, और योनिक तृणों के शरीर का ही आहार ग्रहण करते हैं, इत्यादि सारा वर्णन पहले की तरह यहाँ भी समझ लेना चाहिए। ( एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बत्ता विउति ) इसी तरह कई जीव तृणयोनिक तृणों में मूल से लेकर बीजरूप तक में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा जावमक्खायं ) इन जीवों का समस्त वर्णन भी पूर्ववत् ही समझना चाहिए । ( एवं ओसहीणवि चत्तारि आलावगा एवं हरियाणवि चत्तारि आलावगा ) इसी प्रकार औषधि के भी चार आलापकों एवं हरितकायों के भी चार आलापकों का विवरण पूर्ववत् कर लेना चाहिए ।। सू० ५३ ।। व्याख्या तृणरूप, औषधिरूप एवं हरितरूप के आहार वगैरह का निरूपण इन तीन सूत्रों में तृणरूप, औषधिरूप एवं हरितरूप वनस्पतियों की उत्पत्तिस्थिति, वृद्धि, रचना, एवं आहार आदि के सम्बन्ध में पहले की ही तरह सांगोपांग वर्णन किया गया है । वास्तव में वनस्पतिकाय के जीव प्रत्येक और साधारण के भेद से २४ लाख योनि के रूप में नाना किस्म के होते हैं । यहाँ तो उनका दिग्दर्शन मात्र किया गया है । कई वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि पृथ्वी से ही होती है पृथ्वी पर तृणरूप में उत्पन्न होते हैं। छोटे-बड़े नाना प्रकार के शरीरों से युक्त वे उस नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हैं । यहाँ तक कि वे तृणादि पर्याय में उत्पन्न जीव अपने कर्मों के अनुसार तृण शरीर वाले होते हैं । तात्पर्य यह है कि वे नाना जाति की पृथ्वी पर तृणरूप में उत्पन्न होकर पृथ्वी के रस को आहार के रूप में खींचते हैं । वे अपने कर्मों के अधीन होने के कारण इससे अपना उद्धार करने में समर्थ नहीं होते । कृतकर्मों का फलभोग करते हैं । जिस प्रकार पृथ्वीयोनिक तृण जीव कहे गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीयो निक तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होने वाले जीव भी होते | पृथ्वीयोनिक तृणों में ही उन तृणकाय के जीवों की उत्पत्ति, स्थिति एवं वृद्धि होती है । वे उन्हीं के रस का आस्वादन करते हैं । यों वे पृथ्वी, जल आदि पाँच स्थावरों के शरीर का भी आहार करते हैं । इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । इसके पश्चात् तृणयोनिक तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होने वाले जीवों का वर्णन भी पहले की तरह समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार तृणयोनिक तृणों में मूल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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