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________________ सूत्रकृतांग सूत्र एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउटति जावमक्खायं ॥सू०५२॥ एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउति, तणजोणियं तणसरीरं च आहारेंति जाव मक्खायं । एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउटेंति, ते जीवा जाव एवमक्खायं ॥ एवं ओसहीणवि चत्तारि आलावगा। एवं हरियाणवि चत्तारि आलावणा ॥ सू० ५३ ॥ संस्कृत छाया अथाऽपरं पुराऽऽख्यातमिहैकतये सत्त्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसम्भवाः यावन्नानाविधयोनिकासु पृथिवीषु तृणतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तासां नानाविधयोनिकानां पृथिवीनां स्नेहमाहारयन्ति यावत्ते जीवाः कर्मोपपन्नकाः भवन्तीत्याख्यातम् ।। सू० ५१ ।। एवं पृथिवीयोनिकेषु तृणेषु तृणतया विवर्तन्ते यावदाख्यातम् ॥ सू० ५२ ।। एवं तृणयोनिकेषु तृणेषु तृणतया विवर्तन्ते तृणयोनिकं तृणशरीरं च आहारयन्ति यावदाख्यातम् । एवं तृणयोनिकेषु तृणेष मूलतया यावद् बीजतया विवर्तन्ते । ते जीवाः यावदाख्यातम् । एवमौषधीष्वपि चत्वारः आलापका एवं हरितेष्वपि चत्वारः आलापकाः ।। सू० ५३ ।। अन्वयार्थ (अहावरं पुरक्खाय) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के जीवों के और भी भेद बताये हैं। (इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसम्भवा जाव णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउति) कई प्राणी पृथ्वी पर उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी पर ही स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करते हैं। यहाँ तक कि वे जीव नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वी पर तृण रूप में उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेन्ति) वे जीव नाना प्रकार की जाति वाली पृथ्वी के स्नेह का आहार करते हैं। (जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवन्तीतिमक्खायं) वे जीव कर्म से प्रेरित होकर तृणयोनि में उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है ॥ सू० ५१ ॥ ___ (एवं पुढवीजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउटति जावमक्खायं) इसी प्रकार कई जीव पृथ्वीयोनिक तृणों में तृणरूप से उत्पन्न होते हैं, वहीं स्थित रहते हैं, वहीं बढ़ते हैं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए ।। सू० ५२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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