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________________ तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा २१६ किये जाते हैं । आहारसंज्ञा चार कारणों से होती है -- (१) जठराग्नि प्रदीप्त होने से। (२) क्षुधावेदनीय के उदय से । (३) आहार के ज्ञान से और (४) आहार की चिन्ता करने से। किसी आचार्य का मत है कि औदारिक शरीर की उत्पत्ति होने के बाद भी जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा और मन की उत्पत्ति नहीं होती, तब तक प्राणी ओज आहार को ही ग्रहण करते हैं । इन्द्रिय, प्राण, भाषा और मन की पर्याप्ति होने के बाद प्राणी स्पर्शेन्द्रिय द्वारा जो आहार ग्रहण करते हैं, वह रोमाहार कहलाता है । अन्य आचार्यों का मत है कि जो आहार नाक, आँख, कान द्वारा ग्रहण किया जाता है, धातुरूप में परिणत होता है, वह ओज आहार है, जो केवल चमड़ी से ग्रहण किया जाता है, वह रोमाहार है और जो स्थूल पदार्थ जिह्वा द्वारा इस शरीर में पहुँचाया जाता है, वह प्रक्षेपाहार है । गर्भ में स्थित बालक गर्मी, शीतल वायु और जल से प्रसन्नता का अनुभव करता है, इसका कारण यही है कि वह स्पर्शेन्द्रिय द्वारा रोमाहार ग्रहण करता है । वायु आदि के स्पर्शमात्र से रोमाहार सदा होता रहता है, परन्तु प्रक्षेपाहार सतत् नहीं होता, वह उसी समय होता है, जब प्राणी अपने मुख में कौर डालते हैं, अतः यह प्रक्षेपाहार सबके समक्ष प्रत्यक्ष है, किन्तु रोमाहार सर्वप्रत्यक्ष नहीं है, क्योंकि वह अल्पदष्टि जीवों को प्रत्यक्ष नहीं होता । रोमाहार सतत् ग्रहण किया जाता है, जबकि प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नियत समय पर ही लिया जाता है । देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्पन्न जीव प्रायः तीन दिनों के अनन्तर आहार ग्रहण करते हैं, जबकि संख्येय वर्ष की आयु वाले जीवों के आहार ग्रहण करने का कोई काल-नियम नहीं होता । जिन प्राणियों के केवल स्पर्शेन्द्रिय होती है, वे पृथ्वीकाय आदि के एकेन्द्रिय स्थावर जीव, देवता और नारकी, कवलाहार (प्रक्षेपाहार) नहीं करते। इनके अतिरिक्त शेष द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच और संसारी मनुष्य, सभी प्रक्षेपाहार (कवलाहार) करते हैं । कवलाहार के बिना इनका शरीर टिक नहीं सकता। इसी प्रकार पूर्व शरीर को छोड़कर प्राणी पुनर्जन्म धारण करने के लिए जिस प्रदेश (गति या योनि) में जाता है, वहाँ वह उसके आहाररूप पुद्गलों को खौलते हुए तेल में डाले हुए पूए या घेवर की तरह ग्रहण करता है। यानी पर्याप्त अवस्था को १ वास्तव में आँख, कान, नाक आदि में तेल, घृत आदि रूप में जो आहार डाला जाता है, उसे ओज आहार में परिगणित न करके प्रक्षेपाहार में परिगणित किया जाना चाहिए। -सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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