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________________ २२० सूत्रकृतांग सूत्र पाने से पूर्व प्राणी तैजस और कार्मण शरीर तथा मिश्र शरीर के द्वारा ओज-आहार लेता रहता है । देवताओं और नारकियों के मानसिक संकल्प से क्रमश: शुभ या अशुभ पुद्गल आहार के रूप में परिणत होते हैं । निम्नोक्त चार अवस्थाओं में स्थित जीव किसी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता - ( १ ) जन्मान्तर ग्रहण करने के समय वक्रगति ( विग्रहगति) में रहा हुआ जीव आहार ग्रहण नहीं करता । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है- 'एकं द्वौ वाsनाहारका' अर्थात् - संसारी जीव विग्रह ( वक्र) गति के समय एक, दो या तीन समय तक अनाहारक रहते हैं । शेष समयों में वे आहार करते हैं । (२) केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली भगवान आहार ग्रहण नहीं करते । ( ३ ) शैलेशी अवस्था को प्राप्त अयोगी पुरुष आहार ग्रहण नहीं करते । ( ४ ) सिद्धि को प्राप्त जीव आहार ग्रहण नहीं करते । इन चार अवस्थाओं को छोड़कर शेष सभी अवस्थाओं में जीव आहार ग्रहण करता है, यह समझ लेना चाहिए । कुछ विद्वानों का मत है कि केवली कवलाहार ग्रहण नहीं करते, क्योंकि वे अनन्तवीर्य होते हैं | अल्पवीर्य प्राणी को ही आहार ग्रहण करने की आवश्यकता होती है । तथा वेदना, वैयावृत्य, प्राणरक्षा, ईर्यापथ शोधन, संयम पालन, धर्म चिन्तन, ये ६ कारण जो आहार करने के हैं, वे केवली में नहीं हैं इसलिए केवली भगवान के लिए कवलाहार ग्रहण करना सम्भव नहीं है । परन्तु तात्त्विक दृष्टि से यह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वेदनीय कर्म के उदय से आहार ग्रहण किया जाता है, यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है | वह वेदनीय कर्म जैसे केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व केवली में विद्यमान था, वैसे ही केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भी शैलेशी अवस्था से पूर्व तक विद्यमान रहता है तथा केवली में कवलाहार ग्रहण करने के निम्नोक्त कारण भी विद्यमान हैं -- ( १ ) पर्याप्तित्व, (२) वेदनीय - उदय, (३) आहार को पचाने वाला तैजस शरीर और ( ४ ) दीर्घायुष्कता । ये चारों ही कारण केवलज्ञान होने के पश्चात् भी केवली भगवान में रहते हैं । अतः इन कारणों मौजूद रहते भी केवली कवलाहार ग्रहण न करें इसमें कोई भी कारण या युक्ति नहीं है । निष्कर्ष यह है कि संसारी जीव पहले तेजस एवं कार्मण शरीर द्वारा आहार ग्रहण करते हैं, तलश्चात् शरीर निष्पत्ति के पूर्व जीव औदारिकमिश्र या वैक्रियमिश्र के द्वारा आहार ग्रहण करते हैं और जब औदारिक या वैक्रिय शरीर की रचना पूर्ण हो जाती है, तब वे औदारिक या वैक्रिय शरीर के द्वारा आहार ग्रहण करते हैं । " १ बौद्ध परम्परा में आहार का मुख्यतया एक प्रकार कवलीकार आहार माना गया हैं, जो गन्ध, रस और स्पर्शरूप है । कवलीकार आहार दो प्रकार का है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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