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निक्षेपदृष्टि से आहार पर विचार
निक्षेप की दृष्टि से विचार करने पर आहार के ६ निक्षेप बनते हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । नाम और स्थापना सुगम हैं । द्रव्याहार का मतलब है - किसी द्रव्य का आहार करना, वह द्रव्य सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों प्रकार का हो सकता है । त्रस एवं स्थावर प्राणी सचित्त द्रव्य हैं, जीवरहित द्रव्य अचित्त द्रव्य हैं, और सजीव-निर्जीव मिश्रित द्रव्य मिश्र द्रव्य हैं । जैसे नमक आदि पृथ्वीकाय का आहार करना सचित्त द्रव्याहार है, दूध-वृत आदि जो अचित्त पदार्थ हैं, उनका आहार करना अचित्त द्रव्याहार है ।
सूत्रकृतांग सूत्र
क्षेत्राहार - जिस क्षेत्र में आहार ग्रहण किया जाता है, या बनाया जाता है, अथवा उसकी व्याख्या की जाती है, उसे क्षेत्राहार कहते हैं ।
कालाहार - जिस काल में आहार लिया या बनाया जाता है, अथवा आहार की व्याख्या की जाती है, उसे कालाहार कहते हैं ।
भावाहार - प्राणिवर्ग क्षुधा वेदनीय के उदय से जिस वस्तु का आहार ग्रहण करता है, वह 'भावाहार' है । भावाहार प्रायः सभी जिह्वा के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, वे वर्ण गन्ध रस और स्पर्श रूप है ।
यह हुई वस्तुओं की दृष्टि से भावाहार की व्याख्या । किन्तु आहार ग्रहण करने वाले प्राणियों की दृष्टि से जब हम भावाहार पर विचार करते हैं और नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार के विचारों को पढ़ते हैं तो स्पष्ट परिलक्षित होता है कि समस्त प्राणी तीन प्रकार से भावाहार को ग्रहण करते हैं- ओज - आहार, रोम- आहार और प्रक्षेपआहार | इस दृष्टि से भावाहार तीन प्रकार का होता है। जब तक औदारिक रूप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, तब तक तैजस और कार्मण शरीर और मिश्र शरीरों द्वारा जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे ओज आहार कहते हैं । " सभी अपर्याप्त जीव ओज आहार को ही ग्रहण करते हैं। शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद जो प्राणी बाहर की त्वचा से या रोम कूप से आहार ग्रहण करते हैं, उनका वह आहार रोमाहार या लोमाहार कहलाता है । देवों और नारकों का आहार रोमाहार या लोमाहार है । यह निरन्तर चालू रहता है । मुँह में ग्राम ( कौर) डालकर जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेपाहार कहते हैं । ये आहार आहारसंज्ञा की उत्पत्ति होने पर ग्रहण
१ 'तेएणं कम्मएणं आहारेइ, अनंतरं जीवे तेणं परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निप्पत्ति ।'
- आगम
२ जैसा कि आगम में कहा है- "ओज आहारा सब्वे जीवा आहारगा अपज्जता ।"
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