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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
दूसरे अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है । अब यहाँ से तीसरे अध्ययन की व्याख्या प्रारम्भ की जा रही है। दूसरे अध्ययन में बताया गया था कि जो साधक बारह क्रियास्थानों को छोड़कर तेरहवें क्रियास्थान की आराधना करता हुआ समस्त सावद्यकर्मों से निवृत्त हो जाता है, वह अपने कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है । परन्तु आहार की शुद्धि रखे बिना समस्त सावध (पापयुक्त) कर्मों से निवृत्ति होनी दुष्कर है, इसलिए निर्दोष आहार के सम्बन्ध में विचार करने हेतु तीसरे अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है।
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय इस अध्ययन का नाम 'आहार-परिज्ञा' है । इस अध्ययन में यह बताया गया है कि शरीरधारी जीव को प्रायः प्रतिदिन आहार ग्रहण करने की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसके बिना शरीर की स्थिति सम्भव नहीं है। साधुओं को भी आहार ग्रहण करना अनिवार्य होता है, परन्तु वे दोषरहित शुद्ध आहार से ही अपने शरीर की रक्षा करें, अशुद्ध से नहीं; यह प्रेरणा देना ही इस अध्ययन का उद्देश्य है। यह अध्ययन जीवों के आहार के सम्बन्ध में विविध परिज्ञान कराता है, इसलिए इसे आहार-परिज्ञा अध्ययन कहते हैं । इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में समस्त स्थावर एवं त्रस प्राणियों के आहार के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है।
इस अध्ययन का प्रारम्भ बीजकायों (अग्रबीज, पर्वबीज, मूलबीज एवं स्कन्धबीज) के आहार की चर्चा से होता है।
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये स्थावर प्राणी हैं, तथा द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं। इस दृष्टि से देवता, नारक, मनुष्य आदि की गणना भी त्रसकोटि में हो जाती है। मनुष्य के आहार की चर्चा करते हुए इस अध्ययन में मनुष्य की उत्पत्ति, पोषण, संवर्द्धन आदि कैसे होते हैं ? इसका निरूपण भी किया गया है । वहाँ बताया गया है कि "मनुष्य का आहार ओदन, कुल्माष एवं त्रस-स्थावर प्राणी हैं।" इस समग्र अध्ययन में देवों और नारकों के आहार की कोई चर्चा नहीं की है । हाँ, नियुक्ति एवं वृत्ति में इस विषय की चर्चा अवश्य की गई है।
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“ओयणं कुम्मासं तस-थावरे य पाणे...."
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