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________________ २१६ सूत्रकृतांग सूत्र स्थानों का संक्षेप में प्रतिफल दे दिया है, ताकि साधक विवेक करके हेय को छोड़ सके, ज्ञेय को जान सके और कथंचित् उपादेय को अमुक सीमा तक ग्रहण कर सके । तेरह क्रियास्थानों का विस्तृत रूप से वर्णन करने के पश्चात् शास्त्रकार कहते हैं -१२ क्रियास्थान संसार के और तेरहवाँ क्रियास्थान कल्याण का कारण है । वैसे १२ क्रियास्थान तो आत्मार्थी मुमुक्षु साधक के लिए त्याज्य हैं ही, १३वाँ क्रियास्थान भी योग युक्त होने के कारण कथंचित् ग्राह्य भले ही हो, अन्त में वह भी त्याज्य है । यहाँ जो १३वें क्रियास्थान के लिए यह बताया गया है कि “१३वें क्रियास्थान में वर्तमान यानी उसका सेवन करने वाला जीव सिद्धि, बोध, मुक्ति, निर्वाण या सर्व दुःखमुक्ति पाता है।" यह औपचारिक रूप से बताया गया है क्योंकि जब तक क्रिया (भले ही वह ईर्यापथ क्रिया हो) रहती है, जब तक योग रहते हैं और योगों के रहते मोक्ष, निर्वाण या सिद्धि-मुक्ति नहीं मिल सकती । इसलिए यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि १३वाँ क्रियास्थान प्राप्त होने पर मोक्ष या निर्वाण अवश्य प्राप्त हो जाता है, मोक्ष-प्राप्ति में १३वाँ क्रियास्थान उपकारक है । इसलिए यह स्पष्ट कहा गया है कि पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों के अधिकारी जीव सिद्धि, बोध, मुक्ति, परिनिर्वाण की प्राप्ति या सर्व दु:खों की समाप्ति तीनों काल में नहीं कर पाते, जबकि १३वें क्रियास्थान के अधिकारी जीव सिद्धि, बोध, मुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति या सर्वदुःख समाप्ति तीनों काल में कर लेते हैं । अतः १२ क्रियास्थानों को छोड़कर १३वें क्रियास्थानवर्ती मनुष्य सब प्रकार के दुःखों को नष्ट करके परमानन्दरूप मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं। परन्तु जो अज्ञानी जीव महामोह के उदय से १२ क्रियास्थानों का सेवन नहीं छोड़ते, वे सदा जन्म-मरण के प्रवाहरूप संसार में पड़े हुए अनन्तकाल तक दु:ख के भाजन होते हैं। अतीत में भी जिन्होंने १३वें क्रियास्थान का आश्रय लिया था, वे ही एक दिन अयोगी बनकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बने हैं, बनेंगे, बनते हैं, मगर बारह क्रियास्थानों का आश्रय लेने वाले नहीं । अतः मुमुक्षु साधक १३३ क्रियास्थान का आश्रय लेकर संसार-सागर से आत्मा का उद्धार करने का प्रयत्न करें। इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का क्रियास्थान नामक द्वितीय अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ। ॥क्रियास्थान नामक द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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