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________________ २१२ सूत्रकृतांग सूत्र करेंगे । (ते सिज्झिस्संति जाव सव्वदुवखाणं अंतं करिस्संति) वे सिद्धि को प्राप्त करेंगे, बुद्ध और मुक्त हो जाएंगे तथा दुःखों का अन्त करेंगे। व्याख्या ३६३ प्रावादुक, उनके विचार और दुष्परिणाम इस सूत्र में ३६३ प्रावादुकों के विचार और तदनुरूप दुष्परिणाम का विस्तृत रूप से उल्लेख किया गया है और अन्त में श्रमण निर्ग्रन्थों के सुविचार और उनके सुपरिणाम का भी संक्षेप में जिक्र किया गया है ।। पूर्व सूत्र में बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक आदि ३६३ प्रावादुकों का क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी इन ४ कोटि के मतवादियों के रूप में उल्लेख करके उन्हें अधर्मस्थान में परिगणित किया गया था। इस सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि उन चारों कोटि के मतवादियों को अधर्मस्थान में क्यों परिगणित किया गया है। ... जो व्यक्ति सर्वज्ञ के आगमों या सिद्धान्तों को न मानकर किसी दूसरे मत के प्रवर्तक होते हैं, वे अन्यतीर्थी या प्रावादुक कहलाते हैं। पूर्व सूत्र में ऐसे प्रावादुकों की संख्या ३६३ बताई गई है । ये प्रावादुकगण स्वरचित आगम से पहले किसी अन्य सर्वज्ञभाषित आगम का अस्तित्व नहीं मानते । इनमें से प्रत्येक प्रावादुक का दावे के साथ यह कथन है-- मैं ही जगत को सर्वप्रथम कल्याण का मार्ग बताने वाला हूँ। मुझसे पहले कोई अन्य सत्पथ-प्रदर्शक पुरुष नहीं था। इसीलिए शास्त्रकार ने इन प्रावादुकों को 'आदिकरा' कहा है, अर्थात् वे अपने-अपने मतों (धर्मों) के आदिकर्ता हैं। आहत मत (धर्म) के किसी भी धर्म-प्रवर्तक या धर्मोपदेशक को इनकी तरह धर्म का आदिकर नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उत्तरवर्ती केवलज्ञानी अपने पूर्ववर्ती केवलज्ञानियों द्वारा प्रतिपादित अर्थों की ही व्याख्या करते हैं, यह जैनदर्शन की मान्यता है। पूर्व केवली ने जिस अर्थ को जिस रूप में देखा है, उत्तरवर्ती या दूसरे केवली भी उस अर्थ को उसी रूप में देखते हैं। इसीलिए केवलज्ञानियों के आगमों या सिद्धान्तों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं हैं। मगर अन्यतीर्थियों के आगमों यह बात नहीं है । वे एक ही पदार्थ को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखते हैं और भिन्न-भिन्न रूपों में उसकी व्याख्या करते हैं । उदाहरणार्थ--- सांख्यदर्शन असत् की उत्पत्ति न मानकर सत् का ही आविर्भाव (उत्पत्ति) और तिरोभाव (विनाश) मानता है । किन्तु नैयायिक और वैशेषिक ऐसा नहीं मानते । वे असत् की उत्पत्ति और सत् का नाश मानकर घट, पट आदि कार्य समूह को एकान्त अनित्य और आकाश, काल, दिशा और आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं। बौद्धदर्शन निरन्वय क्षणभंगवाद को मानकर सभी पदर्थों को क्षणिक बत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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