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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान २११ वे बहुत दण्ड के भागी होंगे, वे बहुत मुण्डन, तर्जन, ताड़न, खोड़ीबन्धन, यहाँ तक कि घोले जाने के भागी होंगे, वे माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्री, पुत्रवधू आदि के मरणदुःख के भागी होंगे, (दारिद्दाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओ गाणं बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं आभागिको भविस्संति) वे दरिद्रता, दुर्भाग्य, अप्रिय व्यक्ति के साथ निवास, प्रियवियोग तथा बहुत से दुःखों और वैमनस्य के भागी होंगे । ( अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं भुज्जो भुज्जो अणुपरियट्टिसंति) वे आदि - अन्तरहित तथा दीर्घ मध्य वाले चार गतियों से युक्त संसाररूपी जंगल में बार-बार परिभ्रमण करते रहेंगे । ( ते णो सिज्झिस्संति णो बुज्झिस्संति जाव णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति) वे सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकेंगे, वे बोध को प्राप्त नहीं कर सकेंगे, यहाँ तक कि वे सब दुःखों का अन्त नहीं कर सकेंगे । ( एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे) जैसे सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्ययूथक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते हैं, वैसे ही सावद्य अनुष्ठान करने वाले स्वयूथक भी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते और अनेक दुःखों के भागी होते हैं, यह सबके लिए तुल्य है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध हैं कि दूसरों को पीड़ा देने वाले चोर, जार आदि प्रत्यक्ष ही दण्ड भोगते नजर आते हैं, समस्त आगमों का यही सारभूत विचार है । यह ( सिद्धान्त ) प्रत्येक प्राणी के लिए तुल्य है, प्रत्येक के लिए यह प्रमाण सिद्ध है, और प्रत्येक के लिए आगमों का यही सारभूत विचार है । (तत्थं णं जे ते समणा माणा एवम इक्वंति जाव पति - सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण उद्दवेयव्वा ते णो आगंतुछेयाए णो आगंतुमेयाए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणन्भवगन्भवासभवपर्वचकलंकलीभागिणो भविस्संति) परन्तु जो सुविहित उत्तम श्रमण एवं माहन यह कहते हैं कि समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को मारना नहीं चाहिए, उन्हें अपनी आज्ञा में नहीं चलाना चाहिए, एवं उन्हें बलात् दास-दासी आदि के रूप में गुलाम नहीं बनाना चाहिए, तथा उन्हें डराना-धमकाना या पीड़ित करना नहीं चाहिए, वे महात्मा भविष्य में अपने अंगों के छेदन-भेदन आदि कष्टों को प्राप्त नहीं करेंगे, वे जन्म, जरा, मरण, अनेक योनियों में जन्म धारण, संसार में पुनः पुनः जन्म, गर्भवास तथा संसार के अनेकविध दुःखों के भाजन नहीं होंगे । ( ते णो बहूणं दंडणाणं जाव बहूणं मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्ख दोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्संति) वे बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, तथा बहुत दुःख और दौर्मनस्य के भाजन नहीं होंगे । ( अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्ध' चाउरंत संसारंकंतारं भुज्जो भुज्जो णो अणुपरियटिस्संति) वे आदि अन्तरहित तथा दीर्घकालीन मध्यरूप चातुर्गतिक संसार रूपी घोर वन में बार-बार भ्रमण नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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