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________________ २१० सूत्रकृतांग सूत्र को न बुझायें या न कम करें । (णो बहु साहमियदे यावरियं कुष्जा) इस आग से अपने सार्मिकों की वैयावृत्य (सेवा या उपकार) भी न कीजिए, (णो बहु परधम्मियवेयावडियं कुज्जा) तथा अन्य धर्म वालों की भी वैयावृत्य न कीजिए। (उज्जया णियागपडिवन्ना अमायं कुब्वमाणा पाणि पसारेह) किन्तु सरल एवं मोक्षाराधक बनकर कपट न करते हुए अपने हाथ फैलाइए । (इति वुच्चा से पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहपडिपुन्नं अओमएणं संडासएणं गहाय पणिसु णिसिरति) यों कहकर वह पुरुष आग के धधकते अंगारों से भरा हुआ वह बर्तन लोहे की संडासी से पकड़कर उन प्रावादुकों (विविध मतवादियों) के हाथों पर रखे, (तए णं ते पावादुया णाणापना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता धम्माणं आइगरा पाणि पडिसाहरंति) तब वे नाना बुद्धि, अभिप्राय और अध्यवसान (निश्चय) आदि वाले, धर्म के आदि-प्रवर्तक प्रावादुक अपने हाथ को अवश्य ही हटा लेंगे। (तए णं से पुरिसे धम्माणं आदिगरे जाव णाणाजझवसाणसंजुत्ते ते सव्वे पावादुए एवं क्यासी) यह देखकर वह पुरुष नाना प्रकार की प्रज्ञा और निश्चय वाले धर्म के आदिप्रवर्तक उन प्रावादुकों से इस प्रकार कहे(हं भो णाणापन्ना णाणाज्झवसाणसंजुत्ता धम्माणं आइगरा पावादुया कम्हा णं तुब्भे पाणि पडिसाहरह ?) अजी, नाना बुद्धि और निश्चय वाले धर्मों के आद्य प्रवर्तक प्रावादुको ! तुम अपने हाथ को क्यों हटा रहे हो ? (पाणि नो डहिज्जा) इसलिए कि हाथ न जले ! (दड्ढे कि भविस्सइ) हाथ जल जाने से क्या होगा ? (दुक्खं) यदि दुःख होगा (दुक्खंति मन्नभाणा पडिसाहरह) दुःख के भय से यदि तुम हाथ हटा लेते हो तो (एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे) यही बात आप सबके लिए समान समझिए, यही सबके लिए प्रमाण मानिए, यही धर्म का समुच्चय समझिए । यही बात प्रत्येक के लिए तुल्य समझिए, यही प्रत्येक के लिए प्रमाण मानिए, और प्रत्येक के लिए धर्म का समुच्चय समझिए । (तत्थं णं जेते समणा माहणा एवमाइक्खंति जाव परूवंति सम्वे पाणा जाव सम्वे सत्ता हंतव्वा अज्जावेयव्वा परिघेतवा परितावेयव्वा किलामेयव्वा उद्दवेयव्वा) उन प्रावादुकों में से कई तथाकथित श्रमण और माहन धर्म के प्रसंग में ऐसा कहते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि "सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का हनन करना चाहिए, उन पर आज्ञा चलाना चाहिए, उन्हें दासी-दास आदि के रूप में रखना चाहिए, उन्हें संताप देना चाहिए, उन्हें क्लेश और उपद्रव देना चाहिए।" (ते आगंतुछेयाए ते आगंतुभेयाए जाव ते आगंतु जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणन्भवासभवपवंचकलंकलीभागिणो भविस्संति) वे भविष्य में उत्पत्ति, जरा, जन्म, मरण, बार-बार संसार में उत्पत्ति, गर्भवास और सांसारिक प्रपंच में पड़कर महाकष्ट के भागी होंगे। (ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुडणाणं तज्जणाणं ताडणाणं अदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जापुत्तधूतसुण्हामरणाणं) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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