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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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लाता है । बौद्ध मत के अनुसार पूर्वक्षण के घट के साथ उत्तरक्षण के घट की एकान्त भिन्नता है । और अन्वयी द्रव्य कोई नहीं है । इसी तरह मीमांसक और तापसों के शास्त्रों में भी पदार्थों का निरूपण भिन्न-भिन्न रीति से मिलता है । किसी के साथ किसी का मतैक्य नहीं है । यही कारण है कि शास्त्रकार ने इन प्रावादुकों के लिए कहा है
णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारई णाणारंभा णाणाज्झवसाणसंजुत्ता।
अर्थात् वे प्रावादुक भिन्न-भिन्न प्रज्ञा, अभिप्राय, शील, दृष्टि, रुचि, आरम्भ और निश्चय वाले हैं।
इन प्रावादुकों को अधर्मस्थानीय सिद्ध करने के लिए शास्त्रकार एक दृष्टान्त देकर अहिंसा की प्रधानता सिद्ध करते हैं, लेकिन अन्यतीर्थी प्रावादूक उसे धर्म का प्रधान अंग और समस्त कल्याणों की जननी तथा स्वर्गापवर्गदात्री नहीं मानते । मान लीजिए, किसी स्थान पर सभी प्रावादुक (अन्यतीर्थी) एक जगह गोलाकार बैठे हों, वहाँ कोई सम्यग्दृष्टि पुरुष आग के अंगारों से भरा हुआ एक बर्तन संडासी से पकड़कर इनके समक्ष लाये और इनसे कहे - "अजी प्रावादुको ! आप इस धधकते अंगारों से भरे हए बर्तन को थोड़ी देर के लिए अपने हाथों में थामे रखें, आप न तो संडासी की सहायता लें, न ही एक दूसरे का सहयोग भी लें और दें ।" हमारा विश्वास है कि पहले तो वे प्रावादुक उस बर्तन को हाथ में लेने के लिए हाथ फैलाएँगे लेकिन जब वे उसे अंगारों से भरा देखेंगे तो एकदम पीछे हट जायेंगे और अपने हाथ को जल जाने के भय से हटा लेंगे। उस समय सम्यग्दृष्टि इनसे पूछे कि आप लोग अपने हाथ को क्यों हटा रहे हैं ? तब वे लोग यही उत्तर देंगे- "हाथ जल जाने के डर से हम लोग हटा रहे हैं।" उस पर सम्यग्दृष्टि उनसे फिर पूछे- "हाथ जल जाने से क्या होगा ?" तो उनका उत्तर होगा- “हमें दुःख होगा।"
। उस समय सम्यग्दृष्टि उनसे कहे कि "जैसे आप दुःख से डरते हैं, वैसे ही जगत् के सभी प्राणी दुःख से डरते हैं, फिर वह दुःख चाहे जन्म का हो, या जरा, मरण, रोग, शोक, पीड़ा, दारिद्र य आदि का हो । जैसे आपको दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है, वैसे ही सारे प्राणियों को है । कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, प्रत्येक प्राणी सुख का इच्छुक है । यही बात आप अन्य सबके लिए समझें, इसे प्रमाणसिद्ध सत्य मानें और इसी में सभी आगमों ने धर्म माना है, ऐसा स्वीकार करें। इस दृष्टि से प्राणियों पर दया करना, उन्हें कष्ट न देना, धर्म का मुख्य अंग है। जो सब प्राणियों को अपने समान देखता है, वही अहिंसा का पालन करता है । जहाँ अहिंसा है वहीं धर्म का
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