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________________ २०२ सूत्रकृतांग सूत्र बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर बहुत काल तक का अनशन यानी संथारा ग्रहण करते हैं । (बहूई भत्ताई पच्चक्खाएत्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति) वे बहुत काल तक का अनशन करके संथारे को पूर्ण करते हैं। (बहूई भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) वे संथारा पूर्ण करके अपने कृत पाप-दोषों की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके आत्म-समाधिस्थ हो जाते हैं, इस प्रकार वे काल के अवसर पर समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके विशिष्ट देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। (तं जहामहड्ढिएसु महज्जुइएसु जाव महासुक्खेसु सेसं तहेव जाव) तदनुसार वे महान ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले तथा महासुख वाले देवलोकों में देवता होते हैं। शेष बातें पूर्व पाठ के अनुसार जानना चाहिए । (एस ठाणे आरिए जाव एगंतसम्म साहू) यह स्थान आर्य (आर्यों द्वारा सेवित), एकान्तसम्यक् और उत्तम है। (तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए) तृतीय जो मिश्रस्थान है, उसका विचार इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है । (अविरई पडुच्च बाले, विरइं पडुच्च पंडिए, विरयाविरई पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ) इस तृतीय स्थान का स्वामी अविरति की अपेक्षा से बाल, विरति की अपेक्षा से पण्डित और विरताविरति की अपेक्षा से बालपण्डित कहलाता है । (तत्थ जा सा सवओ अविरई एस ठाणे आरंभठाणे अणारिए जाव असव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छ असाहू) इन तीनों स्थानों में से सभी पापों से अनिवृत्त होने का जो स्थान है, वह आरम्भ स्थान है, वह अनार्य है तथा समस्त दुःखों का नाश न करने वाला एकान्त मिथ्या और बुरा है । (तत्थ णं जा सा सव्वओ विरई एस ठाणे अणारंभठाणे आरिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू) उनमें से दूसरा स्थान जिसमें व्यक्ति सब पापों से निवृत्त होता है, वह स्थान अनारम्भ एवं आर्य है, तथा समस्त दुःखों का नाश करने वाला, एकान्त सम्यक् और उत्तम है। (तत्थ णं जा सा सव्वओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभ-णोआरंभट्ठाणे, एस ठाणे आरिए जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साह) और उनमें से तीसरा स्थान, जिसमें कुछ पापों से निवृत्ति और कुछ पापों से अनिवृत्ति होती है, वह आरम्भ-नोआरम्भयुक्त स्थान है, यह स्थान आर्य है, यहाँ तक कि समस्त दुःखों का नाशक, एकान्त सम्यक् और उत्तम है । व्याख्या तृतीय मिश्रस्थान : स्वरूप और विश्लेषण तीसरा स्थान जो विरताविरती होने के कारण मिश्रस्थान कहलाता है, उसका इस सूत्र में सांगोपांग निरूपण किया गया है । वास्तव में इस तीसरे स्थान में धर्म और अधर्म दोनों ही मिश्रित हैं, मिले-जुले हैं, इसलिए इस मिश्र कहते हैं । यद्यपि यह स्थान अधर्म से भी युक्त है, तथापि अधर्म की अपेक्षा इसमें धर्म का अंश इतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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