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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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अधिक है कि उसमें अधर्म बिलकुल छिपा हुआ या दबा हुआ-सा है। जैसे आटे में जरा से नमक का कोई पता नहीं लगता, चन्द्रमा की हजार किरणों में उसका कलंक छिपसा जाता है, इसी तरह इस स्थान में धर्म से अधर्म छिपा हुआ या दबा-सा रहता है। इसलिए इस स्थान की धर्मपक्ष में गणना की जाती है।
इस मिश्रस्थान का अधिकारी कौन और कैसे मनुष्य होते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं- वे अल्प-इच्छा, अल्प-आरम्भ और अल्प-परिग्रह से युक्त होते हैं। वे धर्माचरण करते हैं, धर्म की मर्यादाओं के अनुसार चलते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक आजीविका करते हुए वे जीवन यापन करते हैं । वे शील एवं व्रत में निष्ठावान होते हैं । उनकी अप्रसन्नता (नाराजी) अधिक देर नहीं टिकती, वे सज्जन पुरुष होते हैं । हाँ, वे गृहस्थ श्रमणोपासक होने के कारण प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक का पूर्णतया त्याग नहीं कर पाते । वे स्थूलरूप से हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग करते हैं, लेकिन सूक्ष्मरूप से इनका त्याग नहीं कर पाते । किन्तु जितने भी सावद्यकर्म, जो कि पर-प्राणीसंतापकर हैं, उनका वे अधिकांश रूप से त्याग करते हैं । १५ कर्मादान रूप व्यवसायों से वे निवृत्त होते हैं।
साथ ही वे श्रमणोपासक होते हैं । वे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अधिकरण, बन्ध, मोक्ष आदि के रहस्य के ज्ञाता और इनमें से हेय के त्याग और उपादेय के ग्रहण करने में कुशल होते हैं । वे संकट में पड़ जाने पर भी देवता, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवों सहायता नहीं चाहते, बल्कि ये और इस प्रकार के अन्य देवगण आकर निर्ग्रन्थ प्रवचन से उन्हें विचलित करना चाहें तो भी वे विचलित नहीं होते, न अपने सिद्धान्त का अतिक्रमण करते हैं। इस निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में वे शंका, कांक्षा एवं विचिकित्सा (फल में संदेह) से सर्वथा रहित होते हैं । वे श्रावक होने के नाते सूत्रों के अर्थ और रहस्य को हस्तगत किये हुए होते हैं, वे गुरु से अर्थ की धारणा किये हुए
और उनसे पूछे हुए तथा निश्चय किये हुए होते हैं। वे सूत्रार्थ को भलीभाँति समझे हुए होते हैं । उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ (रगों) निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अनुराग से रंगी हुई होती हैं । वे सबसे छाती ठोककर आत्मविश्वासपूर्वक यही कहते हैं - यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य और सार्थक है, शेष सब अनर्थक हैं। वे इतने उदार होते हैं कि अपने मकान की बाहरी टाटी सदा खुली रखते हैं, घर के द्वार भी सबके लिए खुले रखते हैं । वे बिना प्रयोजन के राजा के अन्तःपुर की तरह दूसरों के घरों में प्रवेश करना पसंद नहीं करते, वे प्रति मास अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासी को पौषधोपवास व्रत करके साधु जैसी अपनी चर्या रखते हैं । उस दिन अपना आत्मनिरीक्षण, परीक्षण एवं आत्मचिन्तन करते हैं । वे श्रमणों के उपासक होने के नाते निर्ग्रन्थ श्रमणो को श्रद्धा
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