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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान २०१ हैं, तथा जीव अजीव के ज्ञाता होते हैं, उन्हें पुण्य-पाप के रहस्य की उपलब्धि हो जाती है, वे आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण और मोक्ष के ज्ञान में दक्ष होते हैं । (असहेज्जदेवासुरनागसुवण्णजक्ख रक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव महोरगाइएहि देवगणेहि) वे श्रावक असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व और महोरग आदि देवों की सहायता नहीं लेते ( निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा) और इनके द्वारा दवाब डाले जाने पर भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते । (इणमेव निग्गंथे पावयणे णिस्संfaar frajfखिया निव्वितिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अट्ठिमिज्जापेम्मा णुरागरत्ता) इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति वे श्रावक निःशंकित, निष्कांक्षित एवं फल के लिए सन्देह से रहित होते हैं, वे सूत्रार्थ के ज्ञाता होते हैं, तथा उसे ग्रहण किये हुए, गुरु से पूछे हुए और निश्चय किये हुए होते हैं । वे सूत्र और अर्थ को भली-भाँति समझे हुए होते हैं, उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ ( रगों ) भी उसके प्रति अनुराग से रंजित होती हैं । वे श्रावक कहते हैं- ( अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अगट्ठे ) आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है - सार्थक है, परमार्थ ( वास्तविक ) है, शेष सब अनर्थक हैं । ( उसियफलिहा ) वे अपने घर में प्रवेश करने की टाटी ( फलिया) खुले रखते हैं, (अवंगुय दुवारा ) उनके घर के दरवाजे भी खुले रहते हैं । (अचियत्तंते उरपरघरप्पवेसा) उन श्रावकों को राजा के अन्तःपुर के समान दूसरे के घर में प्रवेश करना अच्छा नहीं लगता । ( चउद्दट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमसिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपाले माणा ) वे चतुर्दशी, अष्टमी और पूर्णिमा आदि तिथियों में पूर्ण रूप से पौषधोपवास का पालन करते हुए, (समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपरिग्गहकंबल पायपु छणेणं ओ सहमे सज्जेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा बहूह) वे श्रमणोपासक श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासु (अचित्त) और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रोंछन, औषध, भैषज्य, पीठ (चौकी), फलक ( पट्टा ), शय्या, संस्तारक (घास आदि) आदि का भिक्षारूप में दान देकर बहुत लाभ लेते हुए, ( अहापरिगहिएहि सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावे माणा विहरंति) एवं इच्छानुसार ग्रहण किये हुए शील, गुणव्रत, त्याग, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास तप कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र बनाते हुए जीवन व्यतीत करते हैं । (ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई समणोवा सगपरियायं पाउणति) वे इस प्रकार का आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक के व्रतों ( श्रावक व्रतों ) का पालन करते हैं । ( पाउणित्ता आबाहंसि उप्पन्नंसि वा अणुपपन्नंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खायंति) श्रावकव्रतों का पालन करते हुए वे रोग आदि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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