SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० सूत्रकृतांग सूत्र महानुभावेषु महासुखेषु ते तत्र देवाः भवन्ति महद्धिका: महाद्युतिका: यावन्महासुखाः हारविराजितवक्षसः, कटकत्रुटितस्तम्भितभुजाः अंगदकुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठधरा: विचित्रहस्ताभरणा: विचित्रमालामौलिमुकुटाः, कल्याणगन्धप्रवरवस्त्रपरिहिताः कल्याणप्रवरमाल्यानुलेपनधराः भास्वरशरीराः, प्रलम्बवनमालाधरा: दिव्येन रूपेण, दिव्येन वर्णन, दिव्येन गन्धेन, दिव्येन स्पर्शन, दिव्येन संघातेन, दिव्येन संस्थानेन, दिव्यया ऋद्धया, दिव्यया द्यत्या, दिव्यया प्रभया, दिव्यया छायया, दिव्यया अर्चया, दिव्येन तेजसा, दिव्यया लेश्यया दश दिशः उद्योतयन्तः प्रभासयन्तः गतिकल्याणाः, स्थिति कल्याणा:, आगामिभद्रकाश्चाऽपि भविष्यन्ति । एतत्स्थानं आर्य यावत् सर्वदुःखप्रहीणमार्ग एकान्तसम्यक् सुसाधु । द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपक्षस्य विभंगः एवमाख्यातः ।। सू० ३८ ॥ अन्वयार्थ (अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ) इसके पश्चात् दूसरा स्थान, जो धर्मपक्ष कहलाता है; उसका विवरण इस प्रकार दिया जाता है । (इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मगुस्सा भवंति) इस मनुष्य लोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई पुरुष ऐसे होते हैं (अणारंभा, अपरिग्गहा) जो आरम्भ नहीं करते, न परिग्रह रखते हैं। (धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति) जो स्वयं धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार चलते हैं, या दूसरों को भी धर्म की आज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, यहाँ तक कि धर्म से ही अपनी जीविका उपाजित करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं । (सुसीला सुव्वया सुप्पडियागंदा सुसाहू ) जो सुशील हैं, सुन्दर व्रतधारी हैं, शीघ्र सुप्रसन्न हो जाते हैं, और उत्तम साधु पुरुष हैं । (सव्वओ पाणातिवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए) जो आजीवन समस्त प्रकार की जीवहिंसाओं से निवृत्त रहते हैं, (जाव जे यावन्न तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति ततो विप्पडिविरया जावज्जीवाए) जो प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक सभी पापस्थानों से विरत रहते हैं, और दूसरे तथाप्रकार के अधार्मिक लोग दूसरे प्राणियों को संताप देने वाले, अज्ञानयुक्त जिन सावध (पापयुक्त) कर्मों को करते हैं, उन दुष्कर्मों से वे जीवनभर निवृत्त रहते हैं। (से जहाणामए अणगारा भगवंतो) वे धार्मिक पुरुष भाग्यवान अनगार (घरबार आदि का परित्याग किये हुए) होते हैं । (ईरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy