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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १८५ श्चाऽपि भवति । एतत् स्थानमनार्यम् अकेवलं यावदसर्वदुःखप्रहीणमार्गम् एकान्तमिथ्या असाधु । प्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभंग: एवमाख्यातः ॥ सू० ३७ ॥ अन्वयार्थ (से जहाणामए रुक्खे सिया) जिस प्रकार कोई वृक्ष ऐसा हो, (पव्वयग्गे जाए जो पर्वत के अग्र भाग में उत्पन्न हो। (मूले छिन्ने अग्गे गरुए) उसकी जड़ काट दी गई हो, और वह आगे से भारी हो, (जओ णिष्णं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडति) तो वह जिधर नीचा होता है, जिधर विषम होता है, जिधर दुर्गम स्थान होता है, उधर ही गिरता है। (एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए) इसी तरह गुरुकर्मी पूर्वोक्त पापी पुरुष (गब्भाओ गल्भं जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ जरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिरसाणं दुल्लभबोहिए यावि भवइ) एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को तथा एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त करता है, वह नारकी, दक्षिणगामी, कृष्णपाक्षिक एवं भविष्य में दुर्लभबोधि होता है। (एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंत मिच्छे असाहू) अतः यह अधर्मस्थान अनार्य है, तथा केवलज्ञान रहित है, यह समस्त दुःखों का नाशक मार्ग नहीं है, यह एकान्त मिथ्या और बुरा है । (पढमस्स ठाणस्स अधम्मपदखस्स विभंगै एवमाहिए) इस प्रकार प्रथम स्थान जो कि अधर्मपक्ष है, उसका इस प्रकार विचार किया गया है। व्याख्या अधर्मपक्षीय व्यक्ति नरक में कहाँ, कैसे, किस स्थिति में ? इस सूत्र में अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान का अधिकारी पुरुष नरक में कैसे जाता है, किस नरक में जाता है, वहाँ उसे आत्म-विकास की कौन-कौन सी सामग्री नहीं मिलती, इसका विचार किया गया है । वास्तव में एकान्त रूप से पापकर्म करने में आसक्त पुरुष नरक में इस तरह गिरता है, जिस तरह पर्वत के अग्रभाग में पैदा हए पेड़ की जड़ कट जाने से वह आगे से भारी होकर एकाएक टूटकर नीचे गिर पड़ता है। इसी प्रकार गुरुकर्मी पूर्वोक्त पापात्मा कभी सुख नहीं पाता । वह एक गर्भ से दूसरे में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में तथा एक दुःख से अन्य दुःख में एवं एक नरक से दूसरे नरक में लगातार भटकता रहता है। जब भी वह नरक में जाता है तब दक्षिण दिशा में स्थित नरक में जाता है, जहाँ द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से उसे घोर अंधकार मिलता है । वह कृष्णपक्षीय तथा भविष्य में दुर्लभवोधि होता है । स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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