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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या
नरक और वहाँ का वातावरण
पूर्व सूत्र में महापापी और अधर्मपक्षीय व्यक्तियों को नरकगामी बताया गया है। इस सूत्र में उन नरकों का वर्णन संक्षेप में किया गया है।
पूर्वोक्त अधर्मपक्षीय पुरुष जिन नरकों में जाते हैं, वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चतुष्कोण होते हैं । नीचे से उनकी बनावट तेज उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण होती है । उनमें चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि का प्रकाश नहीं होता अपितु सदैव गाढ़ अंधकार व्याप्त रहता है । वहाँ के भूमितल सड़े हुए माँस, रक्त, चर्बी और मवाद से लथपथ होते हैं। ये अत्यन्त बदबूदार और गंदे होते हैं। उनकी दुर्गन्ध असह्य है । उनका स्पर्श काँटे से भी अधिक कर्कश होता है । कहाँ तक कहा जाय, उनके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द सभी अशुभ होते हैं। उनमें रहने वाले प्राणी कभी सुख की नींद नहीं सोते, न प्रचला निद्रा ही उन्हें आती है। नरक में न तो धर्म-श्रवण कर सकते हैं, न उनकी किसी विषय में रुचि होती है, न धैर्य होता है; उनकी बुद्धि मारी जाती है। नारकीय जीव प्रगाढ़, कठोर एवं तीव्र दुःसह वेदना भोगते हुए जीवन यापन करते हैं ।
कुल मिलाकर नरक असह्य दुःखों के भंडार हैं जिनमें अधर्मपक्षीय लोग चिरकाल तक रहकर अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं।
मूल पाठ से जहाणामए रुक्खे सिया पवयग्गे जाए मूले छिन्ने अग्गे गरुए जओ णिण्णं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गम्भाओ गम्भं जम्माओ जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं दुक्खाओ दक्खं दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभबोहिए यावि भवइ। एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीण नग्गे एगंत मिच्छे असाहू। पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सू० ३७॥
संस्कृत छाया तद्यथा नाम वृक्षः स्यात् पर्वताने जातः मूलेच्छिन्नः अग्रे गुरुकः यतो निम्नं यतो विषमं यतो दुर्ग ततः प्रपतति एवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः गर्भतो गर्भ, जन्मतो जन्म, मरणतो मरणं, नरकान्नरकं, दुःखाद् दुःखं (प्राप्नोति) दक्षिणगामी नैरयिकः कृष्णपाक्षिक: आगमिष्यति दुर्लभबोधिक
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