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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १७७ (दुस्सीला दुव्वया दुप्पडियाणंदा असाहू) वे दुराचारी, दुष्ट स्वभाव वाले, बुरे व्रत वाले और दुःख से प्रसन्न किये जा सकने वाले दुर्जन होते हैं। (सव्वाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए) वे आजीवन सब प्रकार की हिंसाओं से विरत नहीं होते, (जाव सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए) जो असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और समस्त परिग्रहों से जीवनभर निवृत्त नहीं होते। (सव्वाओ कोहाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह पापों से जीवन भर निवृत्त नहीं होते । (सन्वाओ व्हाणम्मद्दणवण्णगगंधविलेवणसहफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो जीवनभर स्नान, तैलमर्दन तथा शरीर में रंग लगाना, गंध लगाना, चन्दन का लेप करना, मनोहर और कर्णप्रिय शब्द सुनना, स्पश-रस-रूप और गंध को भोगना तथा फूलमाला और अलंकारों को धारण करना---इन सब बातों का त्याग नहीं करते (सव्वाओ सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसियासंदमाणियासयणासणजाणवाहणभोगभोयणपवित्थरविहीओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो गाड़ी, रथ, सवारी, डोली, आकाशयान और पालकी आदि वाहनों पर चढ़कर चलना तथा शय्या, आसन, यान, वाहन, भोग और भोजन के विस्तार को जीवन भर नहीं छोड़ते (सव्वाओ कयविक्कयमासद्धमासरूवगसंववहाराओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो सब प्रकार के क्रय-विक्रय तथा माशा, आधा माशा और तोला आदि व्यवहारों से जीवनभर निवत्त नहीं होते (सव्वाओ हिरण्णसुवण्णधणधण्णमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालाओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो सोना, चाँदी, धन, धान्य, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल (मुंगा) आदि के संचय से जीवनभर निवत्त नहीं होते (सव्वाओ कूडतुलकूडमाणाओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो झूठे तोल और माप यानी कम-तोलने और मापने से जीवन भर निवृत्त नहीं होते (सबाओ आरम्भसमारम्भाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए) जो सभी प्रकार के आरम्भ और समारम्भों का जीवनभर त्याग नहीं करते (सव्वाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया) सभी प्रकार के सावध (पाप) कर्मों को करने और कराने से जीवनभर निवृत्त नहीं होते (सव्वाओ पयणपयावणाओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो सभी प्रकार के पचन-पाचन अर्थात् स्वयं अन्न पकाने और दूसरों द्वारा पकवाने से जीवनभर निवृत्त नहीं होते (सव्वाओ कुट्टणपिट्टणतज्जणताडणवहबंधणपरिकिलेसाओ जावज्जीवाए अप्पडिविरया) जो जीवनभर प्राणियों को कूटने, पीटने, धमकाने, मारने, वध करने और बाँधने तथा नाना प्रकार से उन्हें क्लेश देने से निवृत्त नहीं होते (जे आवणे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया परपाणपरियावणकरा कम्मंता) ये और इसी प्रकार के अन्य कर्म जो अन्य प्राणियों को क्लेश एवं सन्ताप देने वाले हैं, सावध (पापमय) तथा बोधिबीज को नष्ट करने वाले हैं, (जे अणारिएहि कति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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