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________________ सूत्रकृतांग सूत्र परस्मिन् लोके ते दुख्यन्ति शोचन्ते जूरयन्ति तिप्यन्ति पीड्यन्ते परितप्यन्ति, ते दुःखनशोचनजूरणतेपनपिट्टनपरितापनवधबन्धनपरिक्लेशेभ्योऽप्रतिविरताः भवन्ति । एवमेव ते स्त्रीकामेषु मूच्छिताः गृद्धाः ग्रथिताः अध्युपपन्नाः यावद् वर्षाणि चतुः पञ्च षड्दश वा अल्पतरं वा भूयस्तर वा कालं भुक्त्वा भोगान् प्रविसूय वैरायतनानि सञ्चित्य बहूनि पापानि कर्माणि उत्सन्नानि सम्भारकृतेन कर्मणा तद् यथा नाम अयोगोलको वा शैलगोलको वा उदके प्रक्षिप्यमाण: उदकतलमतिवयं अध:धरणितल प्रतिष्ठानो भवति एवमेव तथाप्रकार: पुरुषजातः पर्यायबहुलः धुतबहुलः, पंकबहुलः, वैरबहुलः, अप्रत्ययबहुल: दम्भबहुल:, निकृतिबहुल:, अयशोबहुल, उत्सन्नत्रसप्राणघाती कालमासे कालं कृत्वा धरणितलमतिवयं अधोनरकतलप्रतिष्ठानो भवति ।। सू० ३५ ।। अन्वयार्थ (अहाबरे पढमस्त ठाणस अधम्मयक वस्स विभंगे एवमाहिज्जइ) इसके पश्चात् प्रथम स्थान, जो अधर्मपक्ष है, उसका विचार इस प्रकार किया जाता है। (इह खलु पाईणं या ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति) इस मनुष्य लोक में पूर्व आदि दिशाओं में ऐसे मनुष्य भी रहते हैं, (गिहत्था मछेच्छा महारंभा महापरिग्गहा) जो कौटुम्बिक जीवन व्यतीत करने वाले गृहस्थ हैं, बड़ी-बड़ी इच्छाओं वाले, महान् आरम्भ करने वाले तथा महापरिग्रही होते हैं। (अम्मिया अधम्माणुया अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मपलोई अधम्मपलज्जणा, अधम्मलीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव वित्ति कमाणा विहरति) वे अधर्म करने वाले, अधर्म के पीछे चलने वाले, अधर्म को अपना इष्ट मानने वाले, अधर्म की ही चर्चा करने वाले होते हैं, तथा वे अधर्ममय जीविका करने वाले, अधर्म को ही देखने वाले, एवं अधर्म में ही आसक्त होते हैं, तथा वे अधर्ममय स्वभाव, और आचरण वाले पुरुष अधर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए आयु पूर्ण करते हैं। (हण छिद भिद) वे हमेशा यही आज्ञा देते रहते हैं--प्राणियों को मारो, काटो और भेदन करो, (विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया) जो प्राणियों की चमड़ी उधेड़ लेते हैं, जिनके हाथ खून से रंगे रहते हैं, जो बड़े क्रोधी, भयंकर और क्षुद्र होते हैं, वे पाप करने में बड़े साहसी होते हैं, (उक्कुचणचण मायाणियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुला) वे प्राणियों को ऊपर उछाल कर शूल पर चढ़ाते हैं, दूसरों को ठगते हैं, माया करते हैं, और बगुलाभक्त बनते हैं, तोल-माप में कभ देते हैं, जनता की आँखों में धूल झोंकते हैं, देश, वेष और भाषा को धोखा देने के लिए बदल देते हैं, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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