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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १६७ (8) कोई व्यक्ति अकारण ही पूर्वापर विचार किये बिना किसी गहस्थ या उसके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गदर्भशाला, अश्वशाला तथा गोशाला को काँटों की बाड़ से ढककर उनमें आग लगा देता है, दूसरों से आग लगवाता है, तथा आग लगाने वाले को अच्छा समझता है। (१०) कोई व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो कर्मफल का विचार किये बिना अकारण ही किसी गृहपति या उसके पुत्रों के कुण्डल, मणि या मोती को चुरा लेता है, दूसरों से चोरी करवाता है या चोरी करने वाले को अच्छा समझता है। (११) कोई पुरुष अकारण ही श्रमणों या माहनों का द्वषी बनकर दुष्कर्म के परिणाम का विचार किये बिना ही श्रमणों या माहनों के छत्र, दण्ड आदि उपकरणों का हरण कर लेता है, या हरण कराता है, अथवा हरण करने वाले की प्रशंसा करता है। (१२) कोई-कोई व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो श्रमण या माहन को देखकर उनके साथ अनेक प्रकार का पापमय दुर्व्यवहार करता है । अथवा वह साधु को अपने सामने देखना भी नहीं चाहता, इसलिए हट जाने के लिए चुटकी बजाता है, या कठोर वचन कहकर साधु को दुःखित करता है, जब साधु उसके यहाँ गोचरी जाते हैं तो वह उन्हें अशनादि आहार नहीं देता। पूर्वोक्त कोटि में से किसी भी कोटि का व्यक्ति अपने जीवन में महान् पापकर्म करता है । उस पापकर्म के कारण वह इस लोक में महान् पापी के नाम से बदनाम और मशहूर हो जाता है । वे मूढ़ जीव यह विचार नहीं करते कि हम जो पापकर्म कर रहे हैं, उसका कितना बुरा नतीजा आयेगा, उन कटुफलों को भोगते समय हम पर क्या बीतेगी? कोई भी श्रमण या माहन उनके हितैषी बनकर उन्हें पापकर्म छोड़ने के लिए कहते हैं अथवा उन्हें आर्यकर्म करने या धर्माचरण करने के लिए कहते हैं तो वे उन पर एकदम झल्ला उठते हैं, और कहने लगते हैं.---'ये बेचारे साधु वे ही हैं, जो पहले भार ढोने वाले मजदूर थे, नीचे काम करने वाले शूद्र थे, आलसी थे, घर में काम नहीं होता था, इसलिए साधु बनकर संसार पर बोझ बन गये ।' ___ पूर्वोक्त प्रकार से साधुओं के प्रति द्वष, द्रोह करने वाले, निन्दा करके बदनाम करने वाले साधुद्रोहियों का जीवन नीच और अधम होता है, जिसे वे उत्तम मानते हैं । वे परलोक के लिए कोई भी शुभ कार्य नहीं करते । वे नाना प्रकार के पापकर्मों में रचे-पचे रहकर स्वयं दुःख भोगते हैं और दूसरों को भी कष्ट देते हैं। वे अहर्निश चिन्ता, शोक, आर्तध्यान, निन्दा, वध, बन्धन, संताप आदि क्लेशों से पीड़ित रहते हैं। वे प्राणियों को नाना प्रकार की पीड़ाएँ देकर अपने लिए भोग-सामग्री तैयार करते और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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