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________________ १६६ सूत्रकृतांग सूत्र एवं व्यवहार का निरूपण किया गया है। प्रथम स्थान के अधिकारी कोई एक ही प्रकार के नहीं होते । वे विभिन्न प्रकार के अधर्मयुक्त विचारों और प्रवृत्ति से युक्त होते हैं, वे महापाप में ही रचे-पचे रहते हैं। यहाँ मूलपाठ में निम्नोक्त कोटि के व्यक्तियों का निरूपण किया गया है -- (१) कोई पुरुष संकल्पपूर्वक तीतर, कबूतर, लावक, कपिजल आदि में से किसी भी प्राणी को मारकर महान् पापकर्म उपार्जित करता है । (२) कोई पुरुष सड़े-गले अन्न देने से या अपने किसी स्वार्थ या मनोरथ की सिद्धि न होने से या अन्य किसी भी कारणवश गृहपति या उसके पुत्रों पर नाराज होकर उनके शाली, गेहूँ आदि अनाजों में आग लगा देता है, दूसरों से आग लगवाता है या आग लगाने वाले को अच्छा समझता है । (३) पूर्वोक्त किसी भी कारणवश कोई पुरुष किसी गृहस्थ या उसके पुत्रों पर क्रुद्ध होकर उनके ऊँटों, गायों, घोड़ों और गधों के अंगों को स्वयं काटता है, दूसरे से कटवाता है या काटने वाले को अच्छा समझता है । (४) पूर्वोक्त किसी भी कारणवश क्रुद्ध होकर कोई पुरुष किसी गृहस्थ या उसके पुत्रों की उष्ट्रशाला, गोशाला, अश्वशाला या गदर्भशाला को कँटीली डालियों या झाड़ियों से ढककर उनमें आग लगा देता है, आग लगवाता है या लगाने वाले को अच्छा समझता है। (५) कोई व्यक्ति पूर्वोक्त कारणों में से किसी भी कारणवश गृहस्थ अथवा उसके पुत्रों पर नाराज होकर उनके कुण्डल, मणि या मोती की स्वयं चोरी कर लेता है, दूसरों से चोरी करवाता है या चोरी करने वाले को अच्छा समझता है । (६) पूर्वोक्त कारणों में से किसी भी कारण को लेकर कोई व्यक्ति श्रमणों या माहनों का विरोधी बनकर उनकी छाता, डण्डा, उपकरण, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा, चर्मछेदनक या चमड़े की थैली आदि वस्तुओं का स्वयं अपहरण करता है, दूसरों से अपहरण कराता है, तथा अपहरण करने वाले का अनुमोदन एवं समर्थन करता है। (७) कोई पुरुष बिना सोचे-समझे अकारण ही गृहस्थ या उसके पुत्रों के अन्न आदि के आग लगाता है, आग लगवाता है तथा आग लगाने वाले का समर्थन करता है । (८) कोई पुरुष पापकर्म के फल का विचार किये बिना अकारण ही गृहस्थ या उसके पुत्रों के ऊँटों, गायों, घोड़ों और गधों के अवयवों का स्वयं छेदन करता है, दूसरे से करवाता है तथा छेदनकर्ता को अच्छा समझता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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