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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान प्रिय ! कहिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? क्या लाएँ ? क्या भेंट करें ? तथा क्या कार्य करें ? आपका क्या हित है और क्या इष्ट है ? आपके सुख के लिए कौन-सी वस्तु रुचिकर है ? बताइए। (तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति) उस पुरुष को इस प्रकार सुखोपभोग करते देखकर अनार्य लोग यों कहते हैं—(देवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, देवजीवणिज्जे खलु अयं पुरिसे) यह पुरुष तो सचमुच देव है ! यह तो देवों से भी श्रेष्ठ है, यह तो देवों का-सा जीवन जी रहा है । (अन्नेवि य णं उपजीवंति) इसके आश्रय से दूसरे लोग भी आनन्दपूर्वक जीते हैं। (तमेव पासित्ता आरिया वयंति) किन्तु इस प्रकार भोगविलास में डूबे हुए व्यक्ति को देखकर आर्य पुरुष कहते हैं-(अभिक्कंतकूरकम्मे खलु अयं पुरिसे) यह पुरुष तो अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाला है (अतिधुन्ने) यह अत्यन्त धूर्त आदमी है, (अइयायरक्खे) यह अपने शरीर की बहुत हिफाजत (रक्षा) करता है। (दाहिगगामिए) यह दक्षिण दिशा के नरक में जाने वाला है, (नेरइए कण्हपविखए) यह नरकगामी तथा कृष्णपक्षी है । (आगगिस्साणं दुल्लहमोहियाए याचि भविरसइ) यह भविष्य में दुर्लभबोधि प्राणी होगा। (उठ्ठिया वेगे इच्चेपस्स ठाणस्स अभिगिज्झंति) कई मुर्ख जीव मोक्ष के लिए उद्यत होकर (साधु धर्म में दीक्षित होकर) भी इस (पूर्वोक्त) स्थान (विषय-सुख साधन) को पाने की इच्छा करते हैं, (बेगे अगुठ्यिा अभिगिझंति) कई गृहस्थ (अनुत्थित) भी इस स्थान को पाने के लिए लालायित रहते हैं, (अभिझंझाउरा वेगे अभिगिज्झंति) अत्यन्त तृष्णातुर मनुष्य इस स्थान को प्राप्त करने के लिए उधेड़-बुन करते रहते हैं। (एस ठाणे अणारिए) वस्तुतः यह स्थान अनार्य यानी बुरा है । (अकेवले) यह स्थान केवलज्ञानरहित है, (अप्पडिपुन्ने) इस में पूर्ण सुख नहीं है, (अणेयाउए) यह न्याय से दूर है, (असंसुद्ध) इसमें शुद्धता --पवित्रता नहीं है, (असल्लगत्तणे) यह कर्म रूपी शल्य को काटने वाला नहीं है, (असिद्धिमग्गे) यह सिद्धि का मार्ग नहीं हैं, (अमुत्तिमग्गे) यह मुक्ति का मार्ग नहीं है, (अनिव्वाणमग्गे) यह निर्वाण का मार्ग नहीं है, (अणिज्जाणमग्गे) यह निर्याण-संसारसागर से पार होने का मार्ग नहीं है, (असव्वदुक्खपहीणमग्गे) यह समस्त दुःखों का नाश करने वाला मार्ग नहीं है, (एगंतमिच्छे असाहु) यह स्थान एकान्त (सर्वथा) मिथ्या और बुरा है। (एस खलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मगक्खस्स विभंगे एवमाहिए) यह अधर्मपक्ष नामक प्रथम स्थान का विकल्प है, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है। व्याख्या प्रथमस्थान : अधर्मपक्ष का स्वरूप और विश्लेषण इस सूत्र में प्रथम स्थान के अधिकारी अधर्मपक्षीय मनुष्यों के विचार, आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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