SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ सूत्रकृतांग सूत्र करते हैं, (ते जरंति) वे पश्चात्ताप करते हैं, (ते तिप्पंति) वे दुःखी होते हैं, (ते पिट्टति) वे पीड़ित होते हैं, (ते परितप्पंति) वे सन्ताप पाते हैं, (ते दुक्खणजूरणसोयणतिप्पणपिट्टणपरितिप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति) वे दुःख, निन्दा, शोक, संताप, पीड़ा, परिताप, वध, बन्धन आदि क्लेशों से कभी निवृत्त नहीं होते । (ते महया आरंभेणं, ते महया समारंभेणं, ते महया आरंभसमारंभेण विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजित्तारो भवंति) वे महान् आरम्भ, महान् समारम्भ और अनेक प्रकार के महारम्भ-समारम्भ तथा नाना प्रकार के पापकर्म-जनक कुकृत्य करके उत्तमोत्तम मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हैं । (तं जहा---अन्नं अन्नंकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणक ले, सयणं सयणकाले) जैसे कि वे अन्न के समय अन्न का, पान (पेय पदार्थ) के समय पान का, वस्त्र के समय वस्त्र का, निवास स्थान (गृह) के समय निवास स्थान का और शय्या के समय शय्या का उपभोग करते हैं । (सपुष्वावरं च णं हाए कयबलिकम्मे) वे प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल में स्नान करके देवपूजा के रूप में बलिकर्म करते हैं, (कयकोउयमंगलपायच्छित्ते) वे देवता की आरती करके मंगल के लिए स्वर्ण, चन्दन, दधि, अक्षत और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थों का स्पर्श करते हैं । (सिरसा बहाए कंठेमालाकडे) वे सशीर्ष स्नान करके गले में माला धारण करते हैं । (आविद्धमणिसुवन्ने कप्पियमालामउली) वे अपने अंगों पर मणि और सोना पहनकर सिर पर पुष्पमाला का मुकुट धारण करते हैं । (पडिबद्धसरीरे वग्धारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे) युवावस्था के कारण शरीर से वे हृष्ट-पुष्ट होते हैं, और कमर में करधनी तथा छाती पर फूलों की माला पहनते हैं । (अहतवत्थपरिहिए) वे अत्यन्त स्वच्छ और नये वस्त्र पहनते हैं । (चंदणोक्खि तगायसरीरे) अपने अंगों पर चन्दन का लेप करते हैं। (महतिमहालियाए कडागारसालाए) इस प्रकार सजधजकर वे महाप्रसाद में जाते हैं । (महतिमहालयंसि सीहासणंसि) वहाँ वे एक बड़े सिंहासन पर बैठ जाते हैं, (इत्थीगुम्मसंपरिडे) वहाँ स्त्रियाँ आकर चारों ओर से उन्हें घेर लेती हैं, (सध्वराइएणं जोइणा झियायमाणेणं) वहां रातभर दीपक जगमगाते हैं । (महयाहयनट्टगीयनाइयतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुपवाइयरवेणं) फिर वहाँ बड़े जोर से नाच, गान, वाद्य, वीणा, तल, ताल, त्रुटित, मृदंग तथा हाथ की तालियों की ध्वनि होने लगती है, (उरालाई माणुस्सगाई भोगाभोगाई भुजमाणे विहरइ) इस प्रकार उत्तमोत्तम मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करता हुआ वह पुरुष अपना जीवन व्यतीत करता है। (तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स तस्स आवुत्ता चेव चत्तारि पंच जणा अन्भुठंति) वह व्यक्ति जब किसी एक नौकर को आज्ञा देता है तो चार-पाँच मनुष्य बिना कहे ही वहाँ आकर खड़े हो जाते हैं । (देवाणुप्पिया ! भणह किं करेमो, कि आहरेमो, कि उवणेमो, कि आचिट्ठामो, किं भे हियं इच्छ्यिं , कि भे आसगस्स किं सयइ ?) देवों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy