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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १६३ होता है जो जरा-सा भी स्वकृत कर्म के परिणाम का विचार नहीं करता । (तं गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा जाव गद्दभसालाओ वा) जैसे कि वे गृहपति या उनके पुत्रों की ऊँटशाला, घुड़साल, गोशाला एवं गदर्भशाला को (कंटकबोंदियाहि परिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ) सहसा कंटीली झाड़ियों या डालियों से ढककर स्वयं आग लगाकर उन्हें भस्म कर डालता है । (जाव समणुजाणइ ) वह दूसरे को प्रेरित करके जलवा देता है, अथवा जो उन्हें उस प्रकार जलाता है, उसकी प्रशंसा करता है | ( से एगइओ णो वितिगिछइ) कोई-कोई व्यक्ति अपने पापकर्म के फल का जरा भी विचार नहीं करता, (तं जहा - गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ ) जैसे कि वह अकारण ही गृहपति या गृहपतिपुत्रों के कुण्डल, मणि या मोती आदि को स्वयं चुराता है, दूसरों से चोरी कराता है और जो चोरी करता है, उसे अच्छा समझता है । ( से एगइओ णो वितिगिछइ) कोई पाप कर्म करते हुए उसके फल का जरा भी विचार नहीं करता, ( तं जहा समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा जाव चम्मछेदणगं वा सयमेव अवहरइ जाव समणुजाणइ ) जैसे कि वह अकारण द्वेषी बनकर श्रमणों या माहनों के छाता, दंड, कमंडल, भंडोपकरणों से लेकर चर्मछेदनक तक साधनों का स्वयं अपहरण कर लेता है, दूसरों से अपहरण करा लेता है, और जो अपहरण करता है, उसे अच्छा समझता है । ( इति महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ ) इस प्रकार महान् पापकर्म के कारण वह व्यक्ति जगत् में महापापी के नाम से मशहूर हो जाता है । ( से एगइओ समणं माहणं वा दिस्सा ) कोई पुरुष श्रमण और ब्राह्मण को देखकर ( नानाविहेहि पावकस्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ) उनके प्रति अनेक प्रकार के पापमय व्यवहार करता है; और उस पापकर्म के कारण उसकी महापापी के नाम से प्रसिद्धि हो जाती है । ( अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ) वह साधु को अपने सामने से हट जाने के लिए चुटकी बजाता है । ( अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवइ) अथवा वह साधु को कठोर वचन कहता है । ( कालेपि से अणुपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवइ) गोचरी के समय यदि साधु उसके घर पर गोचरी जाता है, तो वह साधु को अशन पान आदि नहीं देता । ( जे इमे भवंति वोनमंता भारककंता अलसगा वसलगा किवणगा समणगा पव्वयंति ) वह पापी पुरुष कहता है- ये भार ढोने वाले या ऐसे ही नीचे काम करने वाले दरिद्र, शूद्र एवं बेचारे आलसी हैं, जो आलस्य के कारण या काम न होने के कारण श्रमणदीक्षा लेकर सुखी बनने की चेष्टा करते हैं । (ते इणमेव जीवितं धिज्जीवितं संपडि बूहेंति) वे साधु-द्रोही लोग इस साधुद्रोहमय जीवन को जो वस्तुतः धिग्जीवन है, उत्तम मानते हैं (ते परलोगस्स अट्ठाए नाइ किंचिवि सिलोसंति) वे मूर्ख परलोक के लिए कुछ भी कार्य नहीं करते, ( ते दुक्खति) वे दुःख पाते हैं, (ते सोयंति) वे शोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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